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________________ उपाध्याय श्री यशोविजयजी उपयुक्ति व्याख्या को विशेष रूप से स्पष्ट करते हुए लिखते हैं किअवधिज्ञानत्वं रूचिसमव्याप्य विषमताशालिज्ञानवृति ज्ञानत्व व्याप्य जातिमत्वम्। रूपि सम व्याप्य विषयता शालिज्ञानं परमावधि ज्ञानम्। रूपग्रंथ लहइ सव्वं (आव. 44) इति वचनात्।।36 / / अवधिज्ञान का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि अवधिज्ञान में रहा हुआ अवधिज्ञानत्व यानी जिस ज्ञान की विषयता में रहा हुआ अवधिज्ञानत्व यानी जिस ज्ञान की विषयता सभी रूपी द्रव्यों में व्याप्त हो एवं अरूपी पदार्थ में व्यापत न हो, ऐसे विषयतारूप ज्ञान को रूपिसमव्याप्य विषमतारूप ज्ञान कहा जाता है, ऐसा ज्ञान परम अवधिज्ञान है, क्योंकि इनका उल्लेख आवश्यक नियुक्ति में भी आता है। जिस आत्मा को जितना अवधिज्ञान होता है, वह उस अवधि अर्थात् मर्यादा में रहे हुए रूपी पदार्थों को देखता है। इसमें वह सभी को समान रूप से नहीं होना, जिसको जितना क्षयोपशम होता है, उतना ही जानता है। अतः हम कह सकते हैं कि कर्म के आदरणीय कर्मों का क्षय होने पर उस ज्ञान के बल से मर्यादा में रहे हुए साक्षात् रूपी द्रव्यों को देखता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं। मनःपर्यवज्ञान द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्य मन के निमित्त बिना ही केवल आत्मा से रूपी द्रव्य मन से परिणत पुद्गल द्रव्य को देखता है। वह मनःपर्यवज्ञान है। इस ज्ञान वाला जीवात्मा अतीन्द्रिय में स्थित संज्ञी मनुष्यों के मानसिक भावों को जान सकता है। यह ज्ञान पांच महाव्रत मनःपर्यवणीय कर्मों के क्षयोपशम की अत्यन्त आवश्यकता है। इसकी प्राप्ति पाँच महाव्रत, अप्रमत्त अवस्था वाले को ही प्राप्त हो सकता है। इसमें बाह्याचार की अपेक्षा आभ्यंतर शुद्धि विशेष रूप से आवश्यक होती है। उपाध्याय यशोविजय ने मनःपर्यवज्ञान का लक्षण बताते हुए ज्ञानबिन्दु में दिखाया है कि मनोमात्रसाक्षात्कारि मनःपर्यायज्ञानम्।” जो ज्ञान सिर्फ मनोद्रव्यों यानी मन के परिणामों का ही साक्षात्कार करने वाला है, वह मनःपर्यवज्ञान कहलाता है। जिस आत्मा ने चरम मनुष्य भव के पूर्व तीसरे भव में तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया होता है, वही आत्मा अपने चरम मनुष्य भव से आत्मा के उत्कृष्ट विशुद्धि के कारण दीक्षा ग्रहण करते ही यह ज्ञान पा लेते हैं। इसलिए तीर्थंकर परमात्मा जन्म से ही तीन ज्ञानयुक्त होते हैं और प्रवज्याग्रहण करने के साथ ही इस चतुर्थ ज्ञान के धनी बन जाते हैं। तीर्थंकर जब व्रत धरे निश्चय हुए ए नाण। इस ज्ञान के पश्चात् निश्चित ही आत्मा को लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान होता है। केवलज्ञान द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्य मन की अपेक्षा बिना ही आत्मा के द्वारा रूपी और अरूपी द्रव्यों का सम्पूर्णतया जानना ही केवलज्ञान है। इस अद्भुत, अलौकिक ज्ञान के क्षयोपशम काम नहीं आता है, लेकिन क्षयशक्ति ही कार्य करती है। आत्मा की अनन्त शक्ति को आच्छादित करने वाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और 204 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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