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________________ चिन्ताज्ञान पूर्वोक्त श्रुतज्ञान के पश्चात् चिन्ताज्ञान का क्रम है। उपाध्याय यशोविजय चिन्ताज्ञान का वर्णन करते हुए कहते हैं कि महावाक्यार्थजयंतु सूक्ष्मयुक्तिशतान्वितम्। तद्रदितिये जले तैल-बिन्दुरीया प्रसृत्वरम् / / " . जो ज्ञान महावाक्यार्थ से उत्पन्न हुआ हो तथा सैकड़ों सूक्ष्म युक्तियों से गर्भित हो और पानी में तेल का बिन्दु फैल जाता है, उसी प्रकार ज्ञान चारों ओर व्याप्त हो जाता है अर्थात् विस्तृत होता है, उसे चिन्ताज्ञान कहते हैं। वस्तुतः यह चिन्तनपरक विमर्शात्मक ज्ञान है। यह विवेचनात्मक व्यापक ज्ञान है और नयप्रमाण से युक्त है। भावना ज्ञान . . उपाध्याय यशोविजय भावनाज्ञान का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जिनाज्ञा को प्रधानता देने वाला ज्ञान ऐंदपर्य ज्ञान कहा जाता है, इसे भावनाज्ञान भी कहते हैं। इस ज्ञान में बहुमान भाव प्रधान होता है। ऐसा भावनायुक्त ज्ञान अपरिष्कारित होने पर भी बहुमूल्य श्रेष्ठ रत्न की क्रान्ति के समान है।" षोडशक में हरिभद्र सूरि ने भी भावनाज्ञान की इसी प्रकार की परिभाषा दी है - सर्वत्राज्ञा पुरस्कारि ज्ञानं स्थाद भावनामयम्। अशुद्ध जात्यरत्नाभासमं तात्पर्यवृत्तितः।।" तात्पर्यवृत्ति से सर्वत्र भगवान की आज्ञा से मान्य करने वाला ज्ञान भावनाज्ञान है। भावना ज्ञान का फल बताते हुए उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि चारसंजीविनीचार कारक ज्ञात तोऽन्तिमे। सर्वत्रैव हिता वृतिर्गाम्भीर्या तत्त्व दर्शिनः।। . घास और संजीवनी दोनों को चराने वाली स्त्री के दृष्टान्त से यह स्पष्ट होता है कि सभी ज्ञानों की साधना करते हुए व्यक्ति भावनाज्ञान को प्राप्त हो जाता है। . श्रुतज्ञान बीजरूप गेहूँ के स्थान पर है। चिंताज्ञान अंकुरित गेहूँ के स्थान पर है तथा भावनाज्ञान फलरूप, गेहूँ रूप में दोनों के समान होने पर भी दोनों में अन्तर रहा हुआ है। उसी प्रकार आज्ञा ही प्रमाण है-इस जिनवचन से श्रुतज्ञान में जो प्राथमिक कक्षा का ज्ञान होता है, उसमें और चिन्ताज्ञान के तथा उसके बाद होने वाले भावनाज्ञान में आज्ञा ही प्रमाण है। इस पद के अर्थ में अन्तर होता है। आज भावनाज्ञान का विकास करके सारे साम्प्रदायिक झगड़े समाप्त किये जा सकते हैं। अवधिज्ञान द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्यमन के बिना केवल आत्मा से रूपी पुद्गलों द्रव्यों को जानना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा को लेकर इन्द्रियों और मन की अपेक्षा रहित जो आत्मा द्वारा ज्ञान होता है, वह अवधिज्ञान है। 203 Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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