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________________ पूर्व साहित्य में भी ज्ञान-चर्चा का उल्लेख था, इसका भी प्रमाण उपलब्ध है। विशेषावश्यक भाष्य में ज्ञान की चर्चा के सन्दर्भ में एक गाथा उद्धृत की गई है, जिसको भाष्यकार एवं वृत्तिकार ने पूर्वगाथा के रूप में स्वीकृत किया है बुद्धि दिढे अत्थे जे भासई, तं सयं भई सहियं / इथरपत्थ वि होज्ज सुयं, उवलद्धि समं जई भणेज्जा।। पूर्व श्रुत जो भगवान महावीर से भी पूर्ववर्ती था तथा अब यह नष्ट हो गया है, ऐसी मान्यता है, उस पूर्वश्रुत में ज्ञान प्रवाद नाम का पूर्व था, जिसमें पंचविधज्ञान की चर्चा थी। दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराएँ इस तथ्य को स्वीकार करती हैं। कार्य संबंधी अति प्राचीन माने जाने वाले ग्रंथों में भी पंचविध ज्ञान के आधार पर ही ज्ञानावरणीय कर्म की प्रवृत्तियों का विभाजन है। कर्म संबंधी अवधारणा निश्चित रूप से लुप्त हुए कर्म प्रवाह पूर्व की अवशिष्ट परम्परा मात्र है। उत्तराध्ययन सूत्र जैसे प्राचीन आगमों में भी उनका वर्णन है। नंदी सूत्र में तो केवल पंचज्ञान की ही चर्चा है। आवश्यक नियुक्ति जैसे प्राचीन व्याख्या ग्रंथ का मंगलाचरण पंचज्ञान के द्वारा ही किया गया है। पंचज्ञान की चर्चा भगवान महावीर से भी पूर्ववर्ती राजप्रश्नीय सूत्र के द्वारा ज्ञात होती है। शास्त्रकार ने भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य केशीकुमार के मुख से ये वाक्य कहलवाये हैं ___ एवं खुं पएसी अहं समणाणं निउगंथाणं पंचविहे नाणे पण्णत्ते। तं जहा आभिणि बोहियनाणे, सुयनाणे, ओहिनाणे, मणपच्च वणाणे केवलणाणे।। इस उच्चारण से स्पष्ट फलित होता है कि इस आगम के संकलनकर्ता के मत से भगवान महावीर से पहले भी श्रमणों में पाँच ज्ञान की मान्यता थी। उनकी यह मान्यता निर्मूल नहीं है। 'उत्तराध्ययन'' के 23वें अध्ययन के केशी-गौतम-संवाद से स्पष्ट है कि भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा में प्रचलित आचार-विषयक संशोधन महावीर ने किया है किन्तु पार्श्वनाथ परम्परा के तत्त्व चिंतन में विशेष संशोधन नहीं किया है। इस सम्पूर्ण चर्चा से फलित होता है कि भगवान महावीर ने पांच ज्ञान. की नवीन चर्चा प्रारम्भ नहीं की है किन्तु पूर्व परम्परा से जो चली आ रही थी, उनको ही स्वीकार कर उसे आगे बढ़ाया है। आगम युग में ज्ञान / आगम साहित्य के आलोक में ज्ञानचर्चा के विकास-क्रम का अवलोकन करने से उसकी तीन भूमिकाओं का स्पष्ट अवभास होता है। प्रथम भूमिका में ज्ञान को पाँच भेदों में ही विभक्त किया गया है। 194 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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