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________________ ज्ञान मीमांसा एवं प्रमाण मीमांसा जैन ज्ञान मीमांसा का उद्भव और विकास ज्ञान को आत्मा का नेत्र कहा गया है। जैसे नेत्रविहीन व्यक्ति के लिए सारा संसार अंधकारमय है, उसी प्रकार ज्ञान-विहीन व्यक्ति संसार के वास्तविक स्वरूप को नहीं जान पाता है। भौतिक जीवन की सफलता और आत्मिक जीवन की पूर्णता के लिए प्रथम सीढ़ी ज्ञान की प्राप्ति है। जीवन की समस्त उलझनें, अशांति, सुख-दुःख, राग-द्वेष-इन सभी का मूल कारण ज्ञान का अभाव ही है। बिना ज्ञान के न तो जीवन सफल होता है, न सार्थक। जो व्यक्ति अपने जीवन को सफल बनाना चाहता है, उसे ज्ञानार्जन के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए। जीवन तब ही सार्थक हो सकता है, जब उसकी गति, उसकी दिशा और उसका पथ सही हो और इनका सम्यक् निर्धारण ज्ञान के द्वारा ही किया जा सकता है। ज्ञान के समान अन्य कोई निधि नहीं है। उपाध्याय यशोविजय की ज्ञानमीमांसा एक दार्शनिकता को उद्घाटित करती हुई साहित्य जगत् में उजागर हुई है। उनके द्वारा रचित अनेक ग्रंथों में ज्ञान-विषयक विवरण हमें प्राप्त होता है, क्योंकि उन्होंने स्वयं अपने जीवन में ज्ञान को जाना था। उनकी गरिमा का आस्वाद लिया था। ज्ञान दृष्टि उद्घाटित हो जाने के बाद एक दिव्य शक्ति का प्रादुर्भाव होता है तथा चिंतन की दृष्टि बन जाने के बाद क्रमशः दिशाएँ दिंगत अनंतरूप लेती हैं और जीवन का उत्थान उत्क्रान्ति का रूप लेता है अतएव ज्ञान ज्योति है, मार्गदर्शक है, स्वतत्त्व को ज्ञात कराता है। तत्त्वविभाकर बनकर ज्ञान निर्णायक शक्ति का प्रकटीकरण करता है। उपाध्याय यशोविजय ने दार्शनिक साहित्य में ज्ञान का एक जीवन्त स्वरूप खड़ा किया है, जिसे सैकड़ों आत्माओं ने नतमस्तक होकर स्वीकारा है। उनकी उदारता एवं समदर्शिता ने उनके साहित्य को बिद्रवदवर्य के लिए हृदयगम्य बना दिया है। . ज्ञान की कक्षा जितनी विस्तृत होगी, उतनी श्रद्धा गहरी बनेगी। ज्ञान से मिथ्यात्व का परिहार और सम्यक्त्व का दर्शन होता है। सम्यग श्रद्धा की अभिव्यक्ति में ज्ञान का बड़ा ही महत्त्व है। ___ मानव संस्कृति के उदयकाल से ही ज्ञान विमर्श का विषय रहा है। हर सभ्यता, संस्कृति ने ज्ञान की महत्ता को निर्विवाद रूप से स्वीकृत किया है। धर्म-दर्शन के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में ज्ञान के अस्तित्व का चिंतन सुदूर अतीत तक चला जाता है। __ आगम पूर्ववर्ती ज्ञान चर्चा . जैन धर्म में आगम का सर्वोच्च स्थान है। वर्तमान में उपलब्ध जैन साहित्य में आगम ग्रन्थ ही * सबसे अधिक प्राचीन है। उन आगमों में तो ज्ञान सिद्धान्त का वर्णन प्राप्त है ही, किन्तु आगम से पूर्ववर्ती 193 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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