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________________ सर्वज्ञ तीर्थंकरों के उपदेशों में से प्रतिफलित होने वाले जैन दर्शन के सिद्धान्तों की यदि परीक्षा की जाए तो सर्वत्र इस स्याद्वाद का दर्शन होगा। स्पष्ट है कि स्याद्वाद ही जैनदर्शन की महान् बुनियाद है। सभी सिद्धान्तों की समीचीनता का ज्ञान कराने वाला स्याद्वाद है, जिसमें सकल समीचीन सिद्धान्तों की अपने-अपने सुयोग्य स्थान में प्रतिष्ठा की जाती है। संक्षेप में कहें तो प्रमाण से अबाधित सकल सिद्धान्तों का मनोहर संकलन ही स्याद्वाद है। अप्रमाणित सिद्धान्तों का समन्वय करना स्याद्वाद का कार्य नहीं है। इस महान् स्याद्वाद सिद्धान्त का प्रतिपादन जैन आगमों में मिलता है तथा उसके पश्चात् रखे जाने वाले नियुक्ति ग्रंथों में उपलब्ध होता है / हमारा गणिपिटक द्वादशांगी जितना गहन है, उतना ही गम्भीर है। इसलिए वह द्वादशांगी श्रमण संस्कृति की सर्वाधार है। इसी द्वादशांगी में स्याद्वाद का स्वरूप स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है। यह स्याद्वाद का एक सिद्धान्तमय निरूपण है। ऐसी निरूपणता सम्पूर्णता से स्वच्छ है, जिसको निष्कर्ष स्वीकार किया जा सकता है। इसी को औपपातिक सूत्र में इस रूप में वर्णित किया गया है इच्चेयं गणिपिडगं निच्चं दव्वद्वियाऐं नायव्वं, पज्जाएण अणिच्चं, निच्चानिच्चं च सियवादो। इस गणिपिटक को नित्य द्रव्यास्तिकाय जानना चाहिए। पर्याय से अनित्य रहने वाला और नित्यानित्य संज्ञा को धारण करने वाला स्याद्वाद है जो सियवायं भासति, प्रमाणपेसलं गुणाधारं। भावेई से ण णसयं सो हि पमाणं पवयणस्स।। जा सियवाय निवंति पमाणपेसलं गुणाधारं। भावेण दुट्ठभावो न सो पमाणं पवयणस्स।।19 प्रमाणों से सुन्दर, गुणों का आधार ऐसे स्याद्वाद का जो प्रतिपादन करता है, वह भावों से नाश नहीं होता है और वही प्रवचन का प्रमाण है तथा इससे विपरीत जो प्रमाणों से मनोहर गुणों का भाजन, जो स्याद्वाद की निंदा करता है, वह दृष्ट भाव वाला होता है तथा प्रवचन का प्रमाण नहीं बनता। यह स्याद्वाद अनेकान्तवाद से ही एक नियोजित निश्चय है, क्योंकि उत्तर आचार्यों ने इस स्याद्वाद सिद्धान्त को ही अनेकान्तवाद से पुष्पित, प्रफुल्लित किया है। दार्शनिक दुनिया का अनेकान्तवाद जितना अस्थेय है, उतना ही अवबोधदायक भी है, क्योंकि अनेकान्तदृष्टि एक ऐसी अद्भुत पद्धति है, जिसमें सम्पूर्ण दर्शन समाहित हो जाते हैं, जैसे कि-सिद्धसेन दिवाकर सूरि ने द्वांत्रिशत् द्वांत्रिशिका में कहा है उदधिविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि सर्वदुष्टयः। न च तासु भवानुदीक्ष्यते प्रविभकतासु सरित्स्विवोदधि / / 320 सभी नदियां जिस प्रकार महासागर में जाकर मिलती हैं, परन्तु भिन्न-भिन्न स्थित नदियों में महासागर नहीं दिखता है, उसी प्रकार सर्वदर्शन रूपी नदियां स्याद्वाद महासागर में सम्मिलित होती हैं, परन्तु एकान्तवाद से अलग-अलग रहते हुए उन-उन दर्शनरूपी नदियों में स्याद्वाद रूपी महासागर दृष्टिगोचर नहीं होता है। इस संबंध में सन्त आनन्दघनजी ने नेमिनाथ भगवान के स्तवन में अपने उद्गारों को इस प्रकार प्रकट किया है 178 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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