________________ वह अनेकान्त किसी एकान्त कोष का धन न होकर अपितु विद्वत् मण्डल का महत्तम विचार संकाय बना। भिन्न-भिन्न दार्शनिकों के संवादों को आत्मसात् बनाने का स्याद्वाद दर्शन ने सर्वप्रथम संकल्प साकार किया और समदर्शिता से स्वात्मतुल्य बनाने का आह्वान किया। इस आह्वान के अग्रेसर, स्याद्वाद के सृजक उपाध्याय यशोविजय हुए, जिन्होंने समदर्शिता को सर्वत्र प्रचलित बनाया। उपाध्याय यशोविजय जैसे मनीषियों ने प्रमाण-प्रमेय की वास्तविकताओं से विद्याक्षेत्रों को निष्कंटक, निरूपद्रव बनाने का प्रतिभाबल निश्छल रखा, जबकि नैयायिकों ने छल को स्थान दिया पर अनेकान्तवादियों ने आत्मीयता का अपूर्व अनाग्ररूप अभिव्यक्त किया। स्याद्वाद को नित्यानित्य, सत्-असत्, भेद-अभेद, सामान्य-विशेष, अभिलाष्य-अनाभिलाष्य से ग्रंथकारों ने समुल्लिखित किया है। वही समुल्लिखित स्याद्वाद अनेकान्तवाद से सुप्रतिष्ठित बना। इसकी ऐतिहासिक महत्ता क्रमिक रूप से इस प्रकार उपलब्ध हुई है सर्वप्रथम आचार्य सिद्धसेन ने आगमिक स्याद्वाद को अनेकान्तरूप से आख्यायित करने का शुभारम्भ किया। तदनन्तर मल्लवादियों ने अनेकान्तवाद की भूमिका निभाई। इसी स्याद्वाद को स्वतंत्रता से ग्रंथरूप देने का महान् श्रेय आचार्य हरिभद्र के अधिकार में आता है। इन्होंने अधिकारिता से अनेकान्तजयपताका में अनेकान्त को सत्-असत्, नित्य-अनित्य, सामान्य-विशेष और अभिलाष्य-अनाभिलाष्य-इन सभी को लिपिबद्ध करके अनेकान्त के विषय को विरल और विशद् एवं विद्वद्गम्य बनाने का अपूर्व बुद्धिकौशल उपस्थित किया है। इन्हीं के समवर्ती आचार्य अकलंक जैसे . विद्वानों ने अनेकान्तवाद की पृष्ठभूमि को विलक्षण बनाया है। ऐसे ही वादिदेवसूरि श्रमण संस्कृति के स्याद्वाद सिद्धान्त के समर्थक सृजनहार के रूप में अवतरित हुए हैं। उन्होंने स्याद्वाद को अनेकान्तवाद रूप में आलिखित करने का आत्मज्ञान प्रकाशित किया है। आचार्य रत्नप्रभाचार्य रत्नाकरावतारिका में भाषा के सौष्ठव से अनेकान्तवाद को अलंकृत करने का त्रियात्मक प्रयास किया है। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने भी स्याद्वाद के स्वरूप को निरूपित करने में नैष्ठिक निपुणता रखते हुए अनेकान्त संज्ञा से सुशोभित किया है। स्याद्वाद शैली को नत्य न्याय की शैली से सुशोभित करने का श्रेय उपाध्याय यशोविजय के हाथों में आता है और लघु हरिभद्र के नाम से अपनी ख्याति को दार्शनिक जगत् में विश्रुत बना गये। ___ वर्तमानकाल में विजयानंदसूरि, आत्माराम श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरि, नेमिचन्द्रसूरि, भुवनभानुसूरि, यशोविजयगणि, अभयशेखरसूरि आदि श्रमणवरों ने स्याद्वाद की विजयपताकाएँ फैलाई हैं। स्याद्वाद जैनदर्शन का मौलिक सिद्धान्त है। स्याद्वाद का सरल अर्थ यह है कि अपेक्षा से वस्तु का बोध अथवा प्रतिपादन जब तर्कयुक्ति और प्रमाणों की सहायता से समुचित अपेक्षा को लक्ष्य में रखकर वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन किया जाता है, तब उनमें किसी भी प्रकार के विरोध का अवकाश नहीं रहता, क्योंकि जिस अपेक्षा से प्रवक्ता किसी धर्म का किसी वस्तु में निदर्शन कर रहा हो, यदि उस अपेक्षा से उस धर्म की सत्ता प्रमाणादि से अबाध्य है तो उसको स्वीकारने में अपेक्षावादियों को कोई हिचक का अनुभव नहीं होता। 177 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org