________________ समुदाय से पदार्थ निर्मित नहीं होती, उसमें एक केन्द्रीभूत शक्ति का भी प्रयोजन होता है। इसलिए जैन दर्शन में पुद्गल एवं उसमें निहित शक्ति को एक ही माना है। पुद्गल के कार्य-प्रत्येक द्रव्य का अपना कार्य होता है। आगम की भाषा में इस कार्य को उपग्रह, उपकार कहते हैं। पुद्गल द्वारा किसी अन्य पुद्गल का उपकार होता है, जैसे-वस्त्र एवं साबुन। साबुन से कपड़ा साफ होता है। दोनों पुद्गल ही हैं। पुद्गल जीव द्रव्य का उपग्रह विविध रूपों में करता है। शरीर, मन, प्राण, वचन, श्वासोच्छ्वास,126 पुद्गल, परिणमन के माध्यम से जीव द्रव्य क उपग्रह भी करता है। सुख-दुःख, जीवन-मरण के रूप में जीव द्रव्य का उपकार करता है। पुद्गल के संस्थान आकृति को ही संस्थान कहते हैं। संस्थान से परिणत पुद्गल, परिमण्डल वृत्ति, त्रिकोण, चतुष्कोण एवं आयत पाँच प्रकार के होते हैं। ये पाँचों संस्थान इत्थंस्थ कहलाते हैं। छट्ठा प्रकार-अनित्यस्थ है। संस्थान के सात भेद भी मिलते हैं।250 दीर्घ, इस्व, त्रयंश, चतुरस्त्र, वृत्त, पृथुल और परिमंडला जैन दर्शन संस्थान ने उसकी पर्याय के रूप में उल्लेख किया है। भौतिक विज्ञान में मेटर पदार्थ की परिभाषा देते हुए कहा कि मेटर वह है, जिसका फार्म बनता है, किन्तु फार्म मेटर नहीं है। फार्म, परिवर्तन क्रम की परिणति है। पदार्थ की एक अवस्था एवं अभिव्यक्ति है। संस्थानों द्वारा पुद्गल की एक ठोस आकृति सामने आती है किन्तु वह आकृति स्थायी नहीं है। परमण्डल आदि आकृतियाँ नियत हैं, किन्तु बादल आदि की आकृतियाँ अनियत संस्थान हैं। प्राणी जगत् के प्रति पुद्गल का उपकार आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन-ये जीव की मुख्य क्रियाएँ हैं। इन्हीं के द्वारा प्राणी की चेतना का स्थूल बोध होता है। प्राणी का आहार, शरीर, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ्वास और भाषा-वे सब पौद्गलिक हैं। मानसिक चिन्तन भी पुद्गल सहायापेक्ष है। चिन्तक चिन्तन के पूर्वक्षण में मनोवर्गणा के स्कन्धों को ग्रहण करता है। उसके चिन्तन के अनुकूल आकृतियां बन जाती हैं। एक चिन्तन से दूसरे चिन्तन में संक्रान्त होते समय पहली-पहली आकृतियाँ बाहर निकलती रहती हैं और नई-नई आकृतियाँ बन जाती हैं। वे मुक्त आकृतियाँ आकाश मण्डल में फैल जाती हैं। कई थोड़े काल बाद परिवर्तित हो जाती हैं और कई असंख्य काल तक परिवर्तित नहीं भी होती। इस मनोवर्गणा के स्कन्धों का प्राणी के शरीर पर भी अनुकूल एवं प्रतिकूल परिणाम होता है। विचारों की दृढ़ता से विचित्र काम करने का सिद्धान्त इन्हीं का उपजीवी है। यह समूचा विश्व दृश्य संसार पौद्गलिक ही है। जीव की समस्त वैभाविक अवस्थाएँ पुद्गल निमित्तक होती हैं। तात्पर्य दृष्टि से देखा जाए तो यह जगत् जीव और परमाणुओं के विभिन्न संयोगों का प्रतिबिम्ब है। जैन सूत्रों में परमाणु और जीव-परमाणु की संयोगवृत्त दशाओं का अति प्रचुर वर्णन है। भगवती, प्रज्ञापना और स्थानांग आदि इसके आकर ग्रंथ हैं। परमाणु षट्त्रिंशिका आदि परमाणु विषयक स्वतंत्र ग्रंथों का निर्माण जैन तत्त्वज्ञों की परमाणु विषयक स्वतंत्र अन्वेषणा का मूर्त है। आज के विज्ञान की अन्वेषणाओं के विचित्र वर्णन इनमें भरे पड़े हैं। भारतीय जगत् के लिए यह गौरव की बात है। 161 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org