SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काल की अपेक्षा-कभी नहीं था, नहीं रहेगा या नहीं है, ऐसा नहीं है किन्तु सदैव उसका अस्तित्व है। अतीत अनन्तकाल में था और अनागत अनन्तकाल में रहेगा। वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। भाव की अपेक्षा-वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से युक्त है। गुण की अपेक्षा ग्रहण गुण वाला है अथवा पूर्ण गलन गुण वाला मिलने-बिछुड़ने का स्वभाव वाला है। स्थानांग एवं लोकप्रकाश में भी ऐसा ही स्वरूप मिलता है। पुद्गल में विविध परिणतियां होती हैं, जिसका कारण पुद्गल में होने वाला परिस्पंदन है। पुद्गल द्रव्य सक्रिय तथा शक्तिमान है। पुद्गल में भी क्रिया होती है। इसी क्रिया को परिस्पंदन कहते हैं। पुद्गल अस्तिकाय है-प्रत्येक पौदगलिक पदार्थ अनेक अवयवों का समूह है तथा आकाश प्रदेशों में फैलता है। इसलिए वह अस्तिकाय है। पुद्गल स्कन्ध संख्यात अथवा अनन्त प्रदेशों से बनता है। इसका आधार उसकी संरचना है। एक स्वतंत्र परमाणु के कोई विभाग नहीं होते। पुद्गल का वर्गीकरण भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर पुद्गल का वर्गीकरण विभिन्न रूप से किया जा सकता है। सभी पुद्गल पुद्गल हैं-इस दृष्टि से पुद्गल का एक ही प्रकार है। यह द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से है। दो भेद-परमाणु और स्कन्ध-ये दो प्रकार के पुद्गल हो सकते हैं। पुद्गल के चार भेदस्कन्ध परमाणु प्रचय-पूरा लड्डू स्कन्ध देश-स्कन्ध का कल्पित भाग-आधा लड्डू स्कन्ध प्रदेश-स्कन्ध से अपृथक्भूत, अविभाज्य अंश-एक बुंदी, जो अलग न हो सके परमाणु-स्कन्ध से पृथक् निरंश तत्त्व-एक बुन्दी पृथक् हो। पुद्गल के आठ भेद-पुद्गल स्कन्धों की अनन्त वर्गणाओं में से मुख्य आठ वर्गणाएँ जीव के लिए उपयोगी हैं-औदारिक वर्गणा, वैक्रिय वर्गणा, आहारक वर्गणा, तैजस् वर्गणा, कार्मण वर्गणा, श्वासोच्छ्वास वर्गणा, भाषा वर्गणा, मनोवर्गणा। पुद्गल की संरचना कार्य पुद्गल की रचना स्कन्धों के भवन से तथा अणुओं के संयोजन से होती है। पुद्गलों में आकर्षण एवं विकर्षण होता है। पौद्गलिक संलयन एवं विलयन के क्रम से स्कन्ध बनते हैं। प्रत्येक दृश्यमान पदार्थ एक स्कन्ध है और भौतिक जगत् के रूप से एक महास्कन्ध है। पुद्गल की संरचना में जैन दर्शन का पदार्थ विश्लेषण प्रतिपादन करता है कि परमाणु पदार्थ की अन्तिम इकाई है, जो अविभाज्य है। परमाणुओं के संयोग से अणु बनता है और अणुओं के संघात-संयोजन से ऊतक का निर्माण होता है। इस प्रकार समस्त जैविक एवं अजैविक संरचना में एक क्रमिक परम्परा का साक्षात्कार होता है। स्कन्ध की धारणा विज्ञान की अणु-भावना से मिलती है। केवल अणुओं के 160 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy