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________________ इस विषय में विशेष समझने योग्य है कि वायु ने जल को धारण कर रखा है, जिससे वह इधर-उधर गमन नहीं कर सकता। जल ने पृथ्वी को आश्रय दिया, जिससे जल भी स्पन्दन नहीं करता, न पृथ्वी ही उस जल से पिघलती है। लेकिन लोक का आधार कोई नहीं है। वह आत्म-प्रतिष्ठित है अर्थात् अपने ही आधार पर है। केवल आकाश में ठहरा हुआ है। ऐसा होने में लोक स्थिति अवस्थान ही कारण है। यह लोक का सन्निवेश अनादि है और यह अनादिता इत्यार्थिक नय की अपेक्षा से है, क्योंकि पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से लोक सादि भी है। अतएव आगम में इसको कथंचित् अनादि और कथंचित् सादि भी बताया है तथा ऐसा सन्निवेश होने में सिवाय स्वभाव के और कोई कारण नहीं है। भगवती में भी गौतमस्वामी ने प्रश्न किया है कि हे भगवन् लोक की स्थिति कितने प्रकार की है? जैसे कि-भंते! ति भयवं गोयमे समणं जाव एवं वयासी कइविहा णं भंते! लोयट्ठिती पन्नता। गोयमा! अट्ठविहा लोयट्ठिती पन्नता।" हे गौतम! आठ प्रकार की लोक स्थिति है। वह इस प्रकार वायु को आकाश ने, उदधि को वायु ने, त्रस जीव और स्थावर जीव को पृथ्वी ने, अजीव जड़ पदार्थों को जीव ने, जीव को कर्मों ने धारण कर रखा है तथा अजीवों को जीवों ने एकत्रित करके रखा है और जीवों को कर्मों ने संग्रहित करके रखा है। स्थानांग" में लोक स्थिति तीन, चार, छः, आठ और दस प्रकार की बताई है। समग्र लोक को ऊर्ध्व, मध्य, अधालोक के क्रम से विभाजित किया गया है। ऊर्ध्वलोक-लोक के चरमान्त में समग्र लोक के शिखर भाग में सिद्ध लोक में अशरीरी सिद्धात्माएँ निवास करती हैं। उसका पुनर्जन्म नहीं है। सिद्धों का यह लोक पुराणों के ब्रह्मलोक या सत्यलोक से तुलनीय है। ब्रह्मलोक ब्रह्माण्ड के शीर्षस्थ भाग में कल्पित किया गया है। इसमें पुनर्जन्म रहित देवता निवास करते हैं। __ ऊर्ध्वलोक' में देवलोक भी है, जहाँ वैमानिक देवों का निवास है। ऊपर कल्पातीत देव हैं, नीचे कल्पोपन्न देव रहते हैं। इनके विमान अकृत्रिम हैं। देवलोक की व्यवस्था शाश्वत है। वहाँ पृथ्वी के समान कालजन्य परिवर्तन नहीं होते हैं। ज्योतिर्लोक-पृथ्वी के मध्य में स्थित सुमेरू पर्वत से ऊपर आकाश में रहने वाले देवता, ज्योतिषी देव कहलाते हैं। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि भेद से पाँच प्रकार के हैं। मनुष्य क्षेत्र में सदा गतिमान रहते हैं। समय विभाजन सदा इन ज्योतिर्मय देवों की गति से ही निर्धारित होता है। खगोल विज्ञान ने अरबों-खरबों गंगाओं की खोज की है। व्यन्तर लोक-समुदस्य भवन तथा पर्वतस्य आवासों में निवास करने वाले देव व्यंतरनिकाय के कहलाते हैं। अधोलोक-भवनपति देवों का निवास पृथ्वीतल के अधोभाग में है। भवनों में निवास होने से ये भवनपति कहलाते हैं। नरकलोक-पृथ्वीतल के अधोभाग में नरक भूमियां हैं। इसमें नैरयिक जीवों का निवास है। नैरयिकों के निवास स्थान बिल का अर्थ है-भू विवर, अन्धकूप आदि-आदि। 134 11 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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