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________________ साधनामार्ग की परस्पर विविधता एवं एकता __ मोक्ष को प्राप्त करने के साधन निरूपचार रत्नत्रयी रूप परिणति हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र में से अलग-अलग कोई भी एक या दो मिलकर मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए तीनों का होना आवश्यक है। तीनों मिलकर मोक्षमार्ग हैं। जैसे जीवन के लिए भोजन, पानी और श्वास-तीनों की ही आवश्यकता होती है, तीनों में से एक के भी नहीं होने पर जीवन अधिक दिनों तक नहीं रह सकता है। उसी प्रकार साध्य अर्थात् मोक्षप्राप्ति के लिए तीनों की ही आवश्यकता है। यह जिज्ञासा सहज ही उठती है कि आत्मस्वरूप की प्राप्ति के साधनों में एकत्व होने पर भी उनमें परस्पर विविधता किस प्रकार है? नियमसार में उपचार भेद बताते हुए कहा गया है-विपरीत मति से रहित पंच परमेष्ठी के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा, निश्चल भक्ति, वही सम्यक्त्व है। संशय विमोह और विभ्रम रहित जिनप्रणित हेय-उपोदय तत्त्वों का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है।'45 पापक्रिया से निवृत्तिरूप परिणाम सम्यक् चारित्र है। निश्चयदृष्टि से आत्मा का निश्चय वह सम्यग्दर्शन है। आत्मबोध वह सम्यक् ज्ञान और आत्मा में ही स्थिति वह सम्यग्चारित्र है। दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से सम्यग्दर्शन होता है और चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से सम्यगचारित्र होता है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से सम्यगज्ञान की प्राप्ति होती है। इन तीनों की एकता ही शिवपद का कारण है। सम्यग्दृष्टि का चौथा गुणस्थानक होता है, जबकि सम्यग्चारित्र का प्रारम्भ पांचवें गुणस्थानक में होता है। उत्तरध्ययन सूत्र में कहा गया है कि सम्यग्दर्शन रहित जीव को सम्यग्ज्ञान नहीं होता है। ज्ञान के बिना चारित्रगुण नहीं होता है, चारित्रगुण से विहीन जीव को मोक्ष नहीं होता है तथा मोक्ष हुए बिना निर्वाण नहीं होता है। सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी महल की नींव है। उपाध्याय यशोविजय ने . अध्यात्मसार में कहा है-"नेत्र का सार कीकी है और पुष्प का सार सौरभ है, उसी प्रकार धर्मकार्य का सार सम्यक्त्व है।"148 आध्यात्मिक मार्ग में, मोक्षपथ में सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति चाहे कितना ही ऊँचा चरित्रधारी हो तो भी वह कदापि मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मसार में कहा है-अंधे व्यक्ति की तरह कोई पुरुष संसार से निवृत्त हो गया हो, काम-भोग त्याग कर दिए हों, कष्ट-सहिष्णु हो, अनेक प्रकार की त्याग-वैराग्य की प्रवृत्ति होने पर भी अगर वह मिथ्यादृष्टि है तो मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है। सम्यक्त्व के बिना की गई शुभ क्रियाएँ भी घानी के बैल जैसी हैं, संसार में भटकाने वाली हैं जबकि द्रव्यचारित्र से भ्रष्ट हुई आत्मा यदि सम्यग्दर्शन को प्राप्त हो गई है तो उसको कभी-कभी द्रव्यचारित्र लिए बिना भी वीतरागदशा और केवलज्ञान प्राप्त हो सकता है, जैसे-इलायचीकुमार। यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक है कि यदि द्रव्यचारित्र नहीं हो तो भी उसमें भावचरित्र तो अवश्य होता ही है, क्योंकि तीनों ही सहचारी रूप से मोक्षमार्ग के कारण हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में कह गया है-जीव सम्यग्ज्ञान से जीवादि पदार्थों और उनकी द्रव्य-गुण-पर्यायों को जानता है। सम्यग्दर्शन से उन पर श्रद्धा करता है। सम्यक् चारित्र से नवीन आते हुए और आत्मा के साथ बंधते हुए कर्मों का निरोध करता है तथा तप से पूर्वसंचित कर्मों का क्षय करता है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है-ज्ञान प्रकाशक है, तप शोधन है और 111 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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