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________________ 'ब्रह्मविद्या उपनिषद् में कहा गया है-"मैं केवल सच्चिदानंद स्वरूप हूँ। ज्ञानधन हूँ। परमार्थिक केवल सन्मात्र सिद्ध सर्व आत्मस्वरूप हूँ।"145 ज्ञानादि धर्म आत्मा से भिन्न है या अभिन्न-यह विचारणा नयों की अपेक्षा से है तो अनेक प्रकार के नयों की विचारणाओं से भेद या अभेद उपस्थित होता है। निर्विकल्प ज्ञान में तो नयों की विवक्षा नहीं होती है। इसलिए विभिन्न नयों की विचारणाओं से भेद या अभेद का अवगाहन निर्विकल्प ज्ञान में नहीं होता है। ब्रह्मतत्त्व का अवगाहन करने वाला निर्विकल्प ज्ञान ब्रह्मतत्त्व के सत्वरूप में चैतन्य या आनन्दरूप में अनुभव नहीं करता है, परन्तु अखण्ड सच्चिदानन्दधने स्वरूप में ब्रह्मतत्त्व का अर्थात् आत्मा का संवेदन करता है। जैसे केवल मिर्ची खाने से मात्र तीखेपन का अनुभव होता है, केवल नींबू चखने से खट्टेपन का अनुभव होता है, नमक खाने से खारेपन का अनुभव होता है किन्तु उचित मात्रा में मिर्ची, नमक, निम्बू डालकर बनाए हुए उत्तम भोजन में यह स्वादिष्ट है, ऐसा ही अनुभव होता है, न कि स्वतंत्र रूप से खराश, मिठास, खटास या तीखापन का। स्वादिष्ट, खरास, तीखापन आदि भिन्न है या अभिन्न, यह चर्चा अस्थान है। उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि पवन के झोंकों से उत्पन्न तरंग जैसे समुद्र से अभिन्न होने के कारण समुद्र में विलीन हो जाती है, उसी प्रकार महासामान्य स्वरूप ब्रह्म में नयजन्य भेदभाव डूब जाते हैं। अलग-अलग नयों के विभिन्न अभिप्रायों से उत्पन्न होने वाला आत्म संबंधी द्वैत शुद्धात्मा में लीन हो जाते हैं। महासामान्यरूपोऽस्मिन्मज्जन्ति नयजा भिदाः। समुद्र इव कल्लोलाः पवननोन्माभनिर्मिताः।। 141 / / . शुद्धात्मा का स्वरूप शब्दों से अवर्णनीय है। सधनों की साध्य से अभिन्नता अनुभव करते हुए भी उसका स्पष्ट वर्णन नहीं कर सकते हैं इसलिए सत्व चैतन्यादि गुणधर्म आत्मा से भिन्न है या अभिन्न-इस प्रश्न का शब्द द्वारा स्पष्ट समाधान नहीं दिया जा सकता है, क्यांकि आत्म-साक्षात्कार यह लोकोत्तर है और भेदाभेद के विकल्प लौकिक हैं। उपाध्याय यशोविजय कहते हैं-"जिन पदार्थों का शब्दों द्वारा निरूपण कर सकें, ऐसा नहीं हो तो भी प्रज्ञापुरुषों द्वारा उसका अपलाप नहीं किया जाता है, माधुर्य विशेष की तरह।"" रत्नत्रयी की आत्मा से एकत्व यह अपरोक्ष अनुभव से गम्य है, जैसे-आम, गुड़, शक्कर आदि की मिठास में परस्पर भेद है किन्तु शब्दों द्वारा भेदों का निरूपण करना अशक्य है। . न्यायभूषण ग्रंथ में भासर्वज्ञ ने कहा है-"गन्ना, दूध, गुड़ आदि की मिठास में बहुत अन्तर है, फिर भी उन्हें शब्दों द्वारा बताना शक्य नहीं है। ठीक इसी तरह अद्वैत ब्रह्म अर्थात् आत्मा की ज्ञान, दर्शन आदि से अभिन्नता का शब्दों द्वारा वर्णन करना अशक्य है। शब्दों द्वारा विशिष्ट प्रकार की मिठास का निरूपण नहीं होने पर भी उनका अपलाप नहीं होता है, क्योंकि यह अनुभव सिद्ध है, ठीक इसी प्रकार अद्वैत बौद्ध का स्वरूप अनिर्वचनीय होने पर भी उसका अपलाप नहीं कर सकते हैं, क्योंकि अपरोक्ष अनुभूति द्वारा तो जान ही सकते हैं। साधनों का साध्य से अभेद निश्चयनय दृष्टि में तात्विक है, व्यावहारिक नहीं है। व्यावहारिक जीवन में साध्य, साधक और साधनापथ-तीनों ही अलग-अलग हैं। 110 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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