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________________ सुख में मग्न और जगत् के तत्त्वों की स्याद्वाद से परीक्षा करके अवलोकन करने वाली आत्मा अन्य भावों का कर्ता नहीं होती है, परन्तु साक्षी होती है। जो जितेन्द्रिय है, धैर्यशील है और प्रशान्त है, जिसकी आत्मा स्थिर है और जिसने नासिका के अग्रभाग पर अपनी दृष्टि स्थापित की है, जो योग सहित है और अपनी आत्मा में ही स्थित है, ऐसे ध्यानसम्पन्न साधकों को देवलोक और मनुष्यलोक में भी वास्तव में कोई उपमा नहीं है। 20 ऐसा साधक साधना करते-करते साध्य परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। साधक के स्वरूप कथन के पश्चात् साध्य परमात्मा के स्वरूप का वर्णन है। साध्य परमात्मा का स्वरूप समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का मूल उद्देश्य आत्मस्वरूप की प्राप्ति है। जैन दर्शन में प्रत्येक जीवात्मा को परमात्मस्वरूप माना गया है। साध्य परमात्मा और साधक जीवात्मा दोनों तत्त्वतः एक ही हैं। जब तक आत्मा संसार की मोहमाया के कारण कर्ममल से आच्छादित है तब तक वह बादल से घिरे हुए सूर्य के समान है। आत्मा के परमात्मस्वरूप को जिन कर्मों ने आवरण बनकर ढंक लिया है, वे कर्म आठ प्रकार के हैं। जिस प्रकार बादल का आवरण हटते ही सूर्य अपना दिव्य तेज पृथ्वी पर फैलाता है, उसी प्रकार साधना करते हुए जब कर्मों का आवरण सम्पूर्ण रूप से दूर हो जाता है, तब आत्मा अनन्तानन्त आध्यात्मिक शक्तियों का पुंज बनकर शुद्ध, बुद्ध परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेती है। मानवीय चेतना का चरम विकास ही ईश्वर है। परमात्मा के दो भेद किये गए हैं-अरिहन्त एवं सिद्ध। अरिहन्त परमात्मा सशरीर है और सिद्ध परमात्मा अशरीरी है। उपाध्याय यशोविजय परमात्मस्वरूप का चित्रण करते हुए कहते हैं कि “जब केवलज्ञान होता है तब अरिहन्त पद प्राप्त होता है।" अरिहन्त परमात्मा जब यह जानते हैं कि आयुष्य पूर्ण होने वाली है, तब वे योग निरोधरूप शैलेषीकरण की प्रक्रिया करते हैं, उस समय वे चौदहवें गुणस्थानक में अयोगकेवली होते हैं। उसके बाद वे अशरीरी सिद्धात्मा के स्वरूप को प्राप्त कर सिद्ध परमात्मा बनते हैं। मानतुंगसूरि भक्तामरस्तोत्र में ऋषभदेव परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं-"परमात्मा अविनाशी ज्ञानपेक्षा विश्वव्यापी अचित्य आदि ब्रह्म ईश्वर अनन्त सिद्ध पद को सूचित करने वाले, अनंगकेतु योगी योग को जानने वाले मन, वचन, काय के योगी का नाश करने वाले अनेक, एक ज्ञानस्वरूप और निर्मल है।" अध्यात्मोपनिषद् में उपाध्याय यशोविजय ने परमात्मस्वरूप का विशेष प्रकार से निरूपण किया है। वे कहते हैं-"जितने गुणस्थानक हैं तथा जितनी मार्गणाएँ हैं, इनमें से किसी के साथ परमात्मा का या शुद्धात्मा का संबंध नहीं है। आगम में आत्मगुण का विकासक्रम बताने के अभिप्राय से गुणस्थानक की व्यवस्था है, उसी प्रकार संसारी जीव की विविधता दिखाने की विवक्षता से मार्गणास्थान की व्यवस्था दर्शाई गई है। अतः सिद्धों में केवलज्ञान होने पर भी 13वां या 14वां गुणस्थानक सिद्धि के नहीं होने से उनमें सयोगीकेवली या अयोगीकेवली दशा भी स्वीकार नहीं करते हैं। जिस प्रकार गुणस्थानक प्रतिबद्ध अयोगी केवलीदशा सिद्ध परमात्माओं में नहीं है, उसी प्रकार मार्गणास्थान प्रतिबंध केवलज्ञान केवलदर्शन परमात्माओं में भी नहीं, क्योंकि सिद्ध तो संसार से अतीत है और मार्गणासारी से संसारी जीव का ही विभाग देखने के लिए है। इससे यह भी सूचित होता है कि विग्रहगति या केवलीसमुदघात में जो अणाहारी 106 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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