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________________ सम्यग्दृष्टि जीव के धर्मराग के विषय में कहा गया है कि दरिद्र ब्राह्मण को यदि घेवर का भोजन मिले तो उसे उस भोजन पर अतिराग होता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि को उससे भी अधिक राग धर्मकार्य में होता है। 15 अनादिकालीन राग-द्वेष की ग्रंथि का भेद होने के बाद आत्मा में स्वतः ही तत्त्व के विषय में तीव्र बहुमान भाव जगाता है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मसार में सम्यक्त्व के पांच लक्षण बताए हैं-1. शम, 2. संवेग, 3. निर्वेद, 4. आस्तिक्य और 5. अनुकंपा।।16 चारित्रवान साधक की तीसरी तथा चौथी अवस्था चारित्रवान की होती है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने चारित्रवान के लक्षण इस प्रकार बताए हैं-1. मार्गानुसारी, 2. श्रद्धावान, 3. प्रज्ञापनीय, 4. क्रिया करने में तत्पर, 5. गुणानुरागी और 6. सामर्थ्यानुसार धर्मकार्यों में रत!"7 इस अवस्था में पहुंचा हुआ साधक सम्यक्त्व प्राप्त होने से दर्शनमोहनीय का क्षयोपशम कर चुका होता है। चारित्रमोहनीय कर्म में देशविरति और सर्वविरति का प्रतिबंध करने वाले ऐसे अप्रत्याख्यान तथा प्रत्याख्यान कषाय तथा उनको सहयोग देने वाले नौ कषाय-इन 17 प्रकृति का क्षयोपशम विशेष होने से अनन्त उपकारी तीर्थंकर के द्वारा बताए हुए त्यागमय संयम मार्ग का अनुसरण करने की बुद्धि आत्मा में उत्पन्न होती है। वीतराग मार्ग का अनुसरण करने वाले को अवश्य तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है। यह मोक्ष का साधकमय कारण है, इसलिए मार्गानुसारिता चारित्री का प्रथम लिंग कहा गया है। धरती में छुपे हुए भण्डार को प्राप्त करने में प्रवृत्त व्यक्ति की शकुन देखना, इष्ट देवों का स्मरण करना आदि विधियों में जैसे अपूर्व श्रद्धा होती है, वैसे ही मार्गानुसारिता व्यक्ति को अनन्त ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति की इच्छा होती है। उसे मोक्ष मार्ग बताने वाले आप्त पुरुषों के प्रति अतिशय श्रद्धा होती है। उसे भोगों के प्रति उदासीनता होती है। वह गुरु के प्रति समर्पित, सरल और नम्र होता है, जिससे गुरु भी उसे शिक्षा के योग्य मानता है। वह आत्मा हितकारी एवं धर्मकार्य करने में सदा तत्पर रहती है। चारित्रवान आत्मा देशविरति और सर्वविरति के भेद से अनेक प्रकार की होती है। देशविरति गृहस्थ भी कोई एक व्रत वाले, कोई दो व्रत वाले यावत् कोई बारह व्रत वाले भी होते हैं। इस प्रकार सर्वविरति चारित्र वाले मुनि भी कोई सामायिक चारित्र वाले, कोई छेदोपस्थापनीय चारित्र वाले, कोई परिहार विशुद्धि चारित्र वाले, कोई सूक्ष्म संपराय चारित्र वाले तो कोई यथाख्यात चारित्र वाले होते हैं। इस प्रकार साधक का स्वरूप क्षयोपशम भेद से तरतमता वाला होता है। परन्तु सिद्धावस्था में क्षायिक भाव होने से सभी समान होते हैं। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् में साधक की निम्न तथा उच्च दोनों कक्षाओं का भेद बताते हुए कहा है कि प्राथमिक साधक को योग की प्रवृत्ति से प्राप्त हुए सुस्वप्न, जनप्रियत्व आदि में सुख का संवेदन होता है, क्योंकि उसे पदार्थों का यथाव्यवस्थित स्वरूप ज्ञात नहीं है और आत्मा के आनन्द का अनुभव भी नहीं है। जिसने ज्ञानयोग को सिद्ध कर लिया है, ऐसे योगी पुरुष को तो आत्मा में ही सुख का संवेदन होता है, क्योंकि उसकी आत्मा की ज्योति स्फुरायमान है। ज्ञानसार में भी 12वें गुणस्थानक पर पहुंचे हुए साधकों की अवस्था का वर्णन करते हुए कहा गया है कि स्वाभाविक 105 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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