SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ / समभिरूढ़ नय-यह नय पर्यायवाची शब्दों में व्युत्पत्ति भेद से अर्थ-भेद को स्वीकार करता है।" इस नय से अभिप्राय यह है कि जीव, आत्मा, प्राणी-ये शब्द अलग-अलग हैं, इसके लिए अर्थ भी अलग-अलग मानना चाहिए। कारण पर्यायवाची शब्दों की भी प्रवृत्ति निमित्त अलग-अलग होती है, जैसे-नृपति, भूपति, राजा शब्द एवं घट, कलश, कुंभ शब्द पर्यायवाची माने जाते हैं परन्तु समभिरूढ़ नय की अपेक्षा से प्रत्येक शब्द का अर्थ अलग-अलग है। / एवंभूत नय-इस नय के अनुसार शब्द की प्रवृत्ति में निमित्तभूत धात्वार्थ या क्रिया से युक्त अर्थ ही उस शब्द का वाच्य है। इस नय के मतानुसार केवल क्रिया को ही शब्द की प्रवृत्ति का निमित्त मानते हैं, जैसे-एक शराबी तभी शराबी कहा जा सकता है, जब वह शराब पीता है। एक वकील तभी वकील कहा जा सकता है, जब वह कोर्ट में न्याय कराता है। एक राजा तभी राजा कहा जा सकता है, जब वह राज-दरबार में प्रजा के सामने बैठता है। एक अध्यापक तभी अध्यापक कहा जा सकता है, जब वह बच्चों को पढ़ाता है। 'गच्छति इति गौ' इस नय के अनुसार गाय जब जलती है, तभी उसके लिए गौ शब्द का प्रयोग कर सकते हैं। संक्षेप में एवंभूत नय अर्थक्रिया विशिष्ट जाति जहाँ हो, वहीं पर उस शब्द का प्रयोग मानता है। अध्यात्म संबंधी नय-व्यवस्था सप्त नयों के सामान्य स्वरूप के बाद अब सप्तनयों की दृष्टि में अध्यात्म-स्वरूप की विवेचना इस प्रकार हैनैगमनय की दृष्टि में अध्यात्म नैगमनय के मतानुसार देव गुरु आदि के पूजनरूप पूर्व सेवा-अध्यात्म है। योगबिन्दु में पूर्वसेवा का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि गुरुदेव पूजन, सदाचार, तप एवं मुक्ति से अद्वेष, मोक्ष का विरोध नहीं करना-इनको शास्त्रमर्मज्ञों ने पूर्व सेवा कहा है। पूर्व में विवेचन कर दिया गया है कि जो भी कार्य किया जाने वाला है, उसका संकल्प मात्र नैगमनय है, उसी प्रकार अध्यात्म के विषय में पूर्व सेवा, शास्त्रलेखन आदि, योगबीज का ग्रहण, योग, इच्छा-योग, प्रीति, भक्ति आदि अनुष्ठान, पंचाचार का पालन-इन सभी अलग-अलग अवस्थाओं में अध्यात्म को स्वीकार करने वाला नैगमनय है। योगबिन्दु ग्रंथ में बताया है-1. औचित्यपूर्ण व्यवहार, 2. अनुष्ठान स्वरूप धर्म में प्रवृत्ति और 3. सम्यक् प्रकार से आत्म-निरीक्षण करना-इन तीनों को शास्त्रकार अध्यात्म कहते हैं। इष्टदेवादि को नमस्कार, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त, तप, जीवादि के प्रति मैत्र्यादि भावना का चिंतन करना आदि अध्यात्म है। इस प्रकार स्थूलता को देखने में निपुण ऐसे नैगमनय द्वारा मार्गानुसारी आदि का आश्रय लेकर स्वयं के सिद्धान्त में विरोध न आए, ऐसे अनेक प्रकार के अध्यात्म स्वीकार कर सकते हैं। संग्रहनय की दृष्टि में अध्यात्म सभी विशेष अंशों को सामान्य रूप से एकत्र करने का दृष्टिकोण होने से संग्रहनय अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्तिसंक्षेप आदि को अलग-अलग स्वीकार करने के स्थान पर सभी में व्याप्त व्यापक तत्त्व 81 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy