________________ दो सिद्धान्त प्रस्तुत किए हैं। उपाध्याय यशोविजय ने नय का सामान्य लक्षण बताते हुए कहा है कि प्रमाण द्वारा जानी हुई अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक देश को ग्रहण करने वाला तथा अन्य अंशों का निषेध नहीं करने वाला अध्यवसाय विशेष नय कहलाता है।" नय की परिभाषा करते हुए जैन आचार्यों ने कहा है कि वक्ता का अभिप्राय ही नय कहा जाता है। नय सिद्धान्त हमें वह पद्धति बताता है, जिसके आधार पर वक्ता के आशय एवं कथन के तात्कालिक सन्दर्भ को सम्यक् प्रकार से समझा जा सकता है। नयों की अवधारणा को लेकर जैनाचार्यों ने यह प्रश्न उठाया है कि यदि वस्तु का अभिप्राय अथवा वक्ता की अभिव्यक्त शैली ही नय है, तो फिर नयों के कितने प्रकार होंगे? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है कि जितनी कथन करने की शैलियां हो सकती हैं, उतने ही नयवाद हो सकते हैं। फिर मोटे रूप से जैन-दर्शन में सप्तनयों की अवधारणा परिलक्षित होती है। सप्तनयों में-नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र-इन चार नयों का अर्थ, पदार्थ से संबंधित नय तथा शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत-इन तीन नयों का शब्दनय अर्थात् कथन से संबंधित नय कहा गया है।" नैगमनय-गुण और गुणी, अवयव और अवयवी, जाति और जातिमान, क्रिया और कारक आदि में भेद और अभेद की विवक्षा कथन करना नैगमनय है। इन सप्तनयों में सर्वप्रथम नैगमनय आता है। नैगमनय मात्र वक्ता के संकल्प को ग्रहण करता है। नैगमनय की दृष्टि से किसी कथन के अर्थ का निश्चय उस संकल्प अथवा साध्य के आधार पर किया जाता है, जिससे वह कथन किया गया है। नैगमनय . संबंधी प्रकथनों में वक्ता की दृष्टि संपादित की जाने वाली क्रिया के अन्तिम साध्य की ओर होती है। वह कर्म के तात्कालिक पक्ष की ओर ध्यान नहीं देकर कर्म के प्रयोजन की ओर ध्यान देती है। प्राचीन आचार्यों ने नैगमनय का उदाहरण देते हुए बताया है कि जब कोई व्यक्ति मकान के लिए किसी जंगल से मिट्टी लेने जाता है और उसे पूछा जाता है कि भाई तुम किसलिए जंगल जा रहे हो तो वह कहता है कि मैं मकान लेने जा रहा हूँ। वस्तुतः वह जंगल से मकान नहीं अपितु मिट्टी ही लाता है लेकिन उसका संकल्प मकान बनाना ही है अतः वह अपने प्रयोजन को सामने रखकर ही कथन को करता है। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति किसी दूकान पर कपड़ा लेने के लिए जाता है और उससे कोई पूछता है कि तुम कहां जा रहे हो तो वह उत्तर देता है कि कोट सिलाना है। वास्तव में वह व्यक्ति कोट के लिए कपड़ा लेने जा रहा है न कि कोट सिलाई करने के लिए जा रहा है। कोट तो बाद में सिया जायेगा, किन्तु उस संकल्प को दृष्टि में रखते हुए वह कहता है कि कोट सिलाने जा रहा हूँ। वैसे भी हमारी व्यावहारिक भाषा में ऐसे अनेक कथन होते हैं, जब हम अपने भावी संकल्प पर ही वर्तमान व्यवहार का प्रतिपादन करते हैं, जैसे-इंजीनियरिंग में पढ़ने वाले विद्यार्थी को उसके भावी लक्ष्य की दृष्टि से इंजीनियर कहा जाता है। नैगमनय के कथनों का वाच्यार्थ भविष्यकालीन साध्य या संकल्प के आधार पर निश्चित होता है। औपचारिक कथनों का अर्थ निश्चय ही नैगमनय के आधार पर होता है, जैसे प्रत्येक भाद्रपद कृष्णा अष्टमी को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी कहना। यहां वर्तमान में भूतकालीन घटना का उपचार है। सामान्य और विशेष स्वरूप से अर्थ को स्वीकार करने वाला नैगमनय होता है। संग्रहनय-सामान्य या अभेद का ग्रहण करने वाली दृष्टि संग्रहनय है। भाषा के क्षेत्र में अनेक बार हमारे कथन व्यष्टि को गौण कर, समष्टि के आधार पर होते हैं। जैन आचार्यों के अनुसार जब 79 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org