________________ का मण्डन और परपक्ष का खण्डन करते हैं, वहीं दूसरी ओर वे अपनी समन्वयवादी दृष्टि का परिचय भी देते हुए परपक्ष की अच्छाइयों को भी उजागर करते हैं। अनेकान्त के सिद्धान्त पर उनकी अनन्य आस्था थी। यह आस्था उनकी सभी कृतियों में फलित होती है। दर्शन, काव्य, साधना और आत्म-साधना तीनों ही पक्ष उनकी कृतियों में देखे जाते हैं। यशोविजय ने अपनी टीकाओं में मूलग्रंथों का आश्रय तो लिया ही है किन्तु इसके साथ-साथ वे विविध दर्शनों में समन्वय का प्रयत्न करते हैं। इस क्षेत्र में उन्होंने अनेकान्त दृष्टि को प्रमुखता दी है और यह बताया है कि प्रकारान्तर से सभी दर्शन कहीं-न-कहीं अनेकान्तवाद को स्वीकार करके चलते हैं। उनकी यह स्पष्ट मान्यता है कि कोई भी दर्शन अनेकान्त का त्याग करके समन्वय स्थापित नहीं कर सकता है। इससे ऐसा लगता है कि उपाध्याय यशोविजय पर आचार्य हरिभद्र का प्रभाव रहा हुआ है। यही कारण है कि उन्होंने हरिभद्र के योग संबंधी ग्रंथों पर विशेष रूप से टीकाएं लिखी हैं। दर्शन के अतिरिक्त योग-साहित्य पर भी उनकी कृतियों एवं टीकाओं की उपलब्धता यही सिद्ध करती है कि वे आध्यात्मिक योग-साधक थे। अध्यात्मसार, ज्ञानसार, अध्यात्मोपनिषद्-इन तीन ग्रंथों में उन्होंने शास्त्रयोग, ज्ञानयोग, . क्रियायोग और साम्ययोग जैसे चार योगों की चर्चा विस्तार से की है, किन्तु उनकी योग संबंधी चर्चा का विशिष्ट पक्ष यह है कि वे इन चारों योगों को परस्पर विरोधी न मानकर एक-दूसरे के पूरक मानते हैं। इस प्रकार अपनी कृतियों में ये एक समीक्षक की दृष्टि प्रस्तुत करते हैं। यशोविजय के साहित्य का दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि उनकी रचनाएं मात्र तार्किकता और धार्मिक विधि-विधान प्रस्तुत नहीं करती अपितु वे आत्मानुभूति की अतल गहराइयों में जाकर स्वानुभूत' सत्य को प्रगट करती हैं। यह ठीक है कि स्वानुभूत सत्य को भाषा की सीमा में बांधकर प्रस्तुत कर पाना अत्यन्त कठिन है, फिर भी उपाध्याय यशोविजय के अध्यात्म के ग्रंथों में आत्मानुभूतियों को प्रकट करने का प्रयास किया है। न केवल उन्होंने इन स्वानुभूतियों को प्रकट किया है, अपितु ध्यान-साधना का एक मार्ग ऐसा भी प्रस्तुत किया, जिसके सहारे चलकर व्यक्ति उसे स्वयं ही अनुभूत कर सकता है। वस्तुतः उपाध्याय यशोविजय एक तार्किक, दार्शनिक बाद में थे। सबसे पहले वे आत्मरसिक साधक हैं और वे इस तथ्य को बहुत स्पष्ट रूप से जानते हैं और मानते हैं। इसी सन्दर्भ में उन्होंने भाषा रहस्य जैसे ग्रंथ की रचना कर भाषा की सीमितता और सापेक्षता को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। उनकी कृतियों के आधार पर यदि हम कोई विश्लेषण करते हैं तो यह स्पष्ट लगता है कि अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में यशोविजय एक दार्शनिक के रूप में सामने आते हैं किन्तु अध्ययन और अनुभूति की गहराइयों में जाकर उन्हें दार्शनिक तार्किकता नीरस लगने लगती है। वे योग और ध्यान-साधना की ओर अभिमुख होते हुए प्रतीत होते हैं और अंत में अध्यात्म में निमग्न हो जाते हैं। इस प्रकार यशोविजय की साहित्य-साधना और उनका जीवन-दर्शन-दोनों ही इस सत्य को स्थापित करते हैं कि वे मात्र तार्किक, दार्शनिक, भावुक कवि न होकर आध्यात्मिक अनुभूतियों के माध्यम से सत्य का साक्षात्कार करने वाले महान् साधक थे। सन्दर्भ सूची 1. सुजसवेली भाष, यशोविजय के समकालीन मुनि कांतिविजयकृत 2. न्यायाचार्य यशोविजय स्मृतिग्रंथ, पुण्यविजय का आमुख, पृ. 12 66 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org