________________ से विशिष्ट क्षयोपशमसाध्य स्पष्टीकरण किया है। उसमें भी स्वोपज्ञ टीका के अन्तर्गत दिक, ध्येयम्, अन्यत्र, अन्ये आदि शब्दों के स्पष्टीकरण से तो टीकाकार ने कमाल ही कर दिया है। इन स्पष्टीकरण से टीका में चार चांद लग गये हैं। उसी तरह नन्वाशय की तथा स्वोपज्ञ टीका के अनेक स्थलों की अवतरणिका बहुत ही सुन्दर है। __ इस टीका को देखते हुए यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा कि यह टीका हकीकत में आर्षटीका की झलक सजाए है। भाषा विषयक रहस्यार्थ का आविष्कार करने वाली प्रस्तुत प्रकरण मंजुषा 101 गाथा स्वरूप रत्नों से भरी हुई है। विषय की गहनता एवं दुर्बोधता को लक्ष्य में रखकर महोपाध्यायजी ने 1055 श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञ विवरण भी बनाया है, जो मूलग्रंथ के तात्पर्य को खोलने की एक कुंजी है। मूलप्रकरण के विषयों को ध्यान में रखकर इस ग्रंथ को 5 स्तबकों में विभक्त किया है। प्रथम स्तबक में भाषा विशुद्धि की आवश्यकता, भाषा द्रव्य का ग्रहण, विसरण एवं पराघात किस तरह होता है? इस विषय के प्ररूपण के प्रसंग में पंचविध भेद का निरूपण करते नैयायिक मत का खण्डन करके विद्यमान भाषाद्रव्यों के नाशप्रसंग का अच्छी तरह निराकरण किया है। .. 88 से 55 गाथा तक द्वितीय स्तबक में अपना स्थान प्राप्त किया है, जिसमें मृषाभाषा के दशविध विभाग का समर्थन एवं अन्यविध विभाग को भी मान्यता देना-ये दो विशेषताएं उल्लेखनीय हैं। 56 से 68 गाथा पर्यन्त तृतीय स्तबक ने प्रतिष्ठा प्राप्त की है, जिसमें व्यवहारनय से मिश्रभाषा के लक्षण का प्रदर्शन एवं दशविध विभाग का समर्थन नव्यन्याय की गूढ़ परिभाषा में दिया गया है। 69 से 86 गाथा तक 18 श्लोक प्रमाण चतुर्थ स्तबक में असत्य मृष भाषा के लक्षण तथा आमन्त्रीणी आदि 12 भेद, त्रिविध-श्रुतविषयक भाषा एवं द्विविध चारित्र विषयक भावभाषा का निरूपण - उपलब्ध है। __इस ग्रंथ के महत्त्वपूर्ण विषय का सुबोध प्रतिपादन पंचम स्तबक में जो 87 से 102 गाथा पर्यन्त फैला हुआ है, उपलब्ध होता है। इस प्रकार यह ग्रन्थ रत्न का अवगाहन कर ग्रन्थ के द्वार तक पहुंचकर अध्येता मुमुक्षुवर्ग मक्खन-सी मुलायम, गुलाब-सी खुशबू फैलाने वाली, शक्कर से ज्यादा मधुर एवं विवेकपूर्ण और हित-मित-पथ्य-सत्य शास्त्रीय तथ्यों से भरी हुई वाणी का प्रयोग करके दूसरे के दिल के घाव की मलहमपट्टी करके, कर्मयुक्त होकर शीघ्र मोक्षसुख प्राप्त करेंगे। योगविंशिकावृत्ति इस जगत् में अनादि काल से जीव योग मार्ग से च्युत बना हुआ संसार परिभ्रमण से परिपुष्ट बन गया है, जिससे अनेक यातनाओं से पीड़ित घोर वेदनाओं से व्यथित हो रहा है। उन सांसारिक पीड़ाओं से मुक्त होने के लिए अत्यन्त आवश्यक है योग। जिसमें जीवात्मा जन्म जन्मान्तरीय जन्म-जरा-मरण की भयंकर यातनाओं को दूर करने में प्रयत्नवान बन सके तथा उनसे अपने आपको विच्युत कर अविच्युत सुख की प्राप्ति कर सके। 1444 ग्रन्थ के प्रणेता आचर्य हरिभद्र सूरि द्वारा रचित विंशति विशीकाप्रकरण, जिसमें विविध विषयों पर बीस श्लोकों में अद्भुत निरूपण दिया गया है, उस ग्रन्थ का ही योग विषयक एवं प्रकरण गागर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org