________________ क्योंकि "भाषा विशुद्ध परम्परा से मोक्ष का कारण है।" यह इस ग्रंथ का हार्द है। यह बात ग्रंथकार ने ग्रंथ की अवतरणिका में ही कही है। वाक्गुप्ति अष्टप्रवचन माता का अंग है। भाषा विशुद्धि का अनभिज्ञ अगर संज्ञादि परिहार से मौन देखे तो भी उसे वाक्गुप्ति का फल प्राप्त नहीं होता है। अतः भाषा विशुद्धि नितान्त आवश्यक है। इसलिए सावध, निरवद्य, वाक्य, अपाच्य, औत्सर्गिक, आपवादिक, सत्य, असत्य आदि भाषा की विशिष्ट जानकारी हेतु अष्टप्रवचन माता के आराधकों के लिए यह ग्रंथ गागर में सागर है। ऐसे देखें तो यह ग्रंथ विद्वत् भोग्य है। उपाध्यायजी की रहस्यपदोक्ति कृति में रहस्य भरा हुआ ही होता है। फिर भी सभी के उपकार हेतु टीकाकार ने जो हिन्दी में अनुवाद किया है, वह अतीव अनुमोदनीय है, जिसको पाकर सभी वाचक इस अमूल्य ग्रंथ की सुवास से प्रमुदित बन जाते हैं। . प्राचीन ग्रंथों को बिलोकर उसमें से घृत निकालकर परिवेषण करने की अपूर्व शक्ति उपाध्यायजी को मिली हुई थी, अतः उन्होंने इस प्रकार अनेकानेक ग्रंथों का सृजन किया था। प्रस्तुत ग्रंथ उनमें से एक है। दशवकालिक सूत्र, जिनशासन का अद्वितीय गुणरत्न विशेषावश्यक भाष्य आदि सोने में सुगंध स्वरूप इस ग्रंथ पर स्वोपज्ञ टीका भी है, जो इस ग्रंथ के हार्द को प्रस्फुरित करती है। अगाध ग्रंथों का अवलोकन करके इस अमूल्य ग्रन्थ की भेंट दी है। आगम आदि साहित्य में ऐसी कई बातें हैं जो बाह्यदृष्टि से विरोधग्रस्त-सी लगती है। .. उपाध्यायजी की विशेषता यह है कि उन बातों को प्रकट करके अपनी तीव्रसूक्ष्मग्राही मेधा द्वारा उनके अन्तःस्थल तक पहुंचकर गम्भीर एवं दुर्बोध ऐसे स्याद्वाद नय आदि के द्वारा उसका सही अर्थघटन करते हैं। देखिए सच्चंतब्मावे च्चिय चउण्हं आराहगतं ज।।191। इस गाथा की स्वोपज्ञ टीका में बताया है कि चारों भाषाओं (सत्य, मृषा, सत्यमृषा, असत्यमृषा) का सत्य में अंतर्भाव होगा, तभी चारों भाषाओं में आराधकत्व रहेगा। इसके लिए 'प्रज्ञापना सूत्र को सबल प्रमाण पेश किया है। इस पाठ का तात्पर्य यह है कि आयुक्त परिमाणपूर्वक चारों भाषाओं को बोलने वाला आराधक है। आज तक शास्त्रविहित पद्धति से जिनशासन की अपभ्रजना को दूर करने के लिए प्रयोजन से बोलना, संयमरक्षा आदि के लिए बोलना अर्थ है। प्रज्ञापना में तो चारों भाषाओं को आयुक्तपूर्वक बोलने पर आराधक कहा है। परन्तु 'दसवैकालिक सूत्र ने सप्तमाध्ययन की प्रथम गाथा में तो मृषा एवं भिक्षुभाषा बोलने का निषेध किया गया है। अतः बाह्य-दृष्टि से विरोधक-सा भासित होता है। उपाध्याय ने उपयुक्त विरोधाभास का कुशलतापूर्वक समाधान करते हुए बताया है कि दश सूत्र का कथन औत्सर्गिक है तथा प्रज्ञापनासूत्र का वचन आपवादिक है। अतः अपवाद से चारों भाषाओं को बोलने पर भी उत्सर्ग अबाधित रहता है। इस प्रकार अनेक विशेषताओं से यह ग्रंथ अलंकृत है। 'कलिकाल श्रुतकेवली' का यह ग्रंथ तो साक्षात् अत्युत्तम रत्नस्वरूप ही है। टीका-वह टीका भी कैसी अद्भुत विद्वतापूर्ण एवं प्रौढ़भाषा युक्त। स्वोपज्ञ टीका के गुप्त भावों को अतिसूक्ष्मतापूर्वक प्रकट करने से यह टीका दिनकर स्वरूप है। वाचक इसका पठन करेंगे तब ही पता चलेगा कि स्वोपज्ञ टीका के लगभग प्रत्येक अंश को लेकर टीकाकार ने किस प्रकार सुन्दर रीति 62 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org