________________ जैसे बाह्य क्रिया करने में जो आलसी है, वह शक्ति होते हुए भी संयमयोगों में सदा उद्यम नहीं करता है, इसलिए उसका चारित्र विशुद्ध कैसे बने? अतः कह सकते हैं कि निश्चय को प्राप्त करने के लिए व्यवहार उपयोगी है। संक्षेप में कह सकते हैं कि सवृतिक कृति भारतीय सम्प्रदायों में गुरु के विषय में तुलनात्मक दृष्टि से अभ्यास कराने का एवं व्यवहार एवं निश्चय का सचोट ज्ञान कराने वाला उत्तम साधन है। अध्यात्ममत परीक्षा यशोविजय ने मूलग्रंथ प्राकृत भाषा में 184 गाथा का लिखा है। उस पर 4000 श्लोकों में टीका की रचना की है। इस ग्रंथ और उसकी टीका में कर्ता ने केवली भगवंतों को कवलाहार नहीं होता है-इस दिगम्बर मान्यता का खण्डन करके केवली को कवलाहार अवश्य हो सकता है, इस प्रकार की अवधारणा को तर्कयुक्त दलीलें देकर सिद्ध किया है। दिगम्बरों की दूसरी मान्यता कि तीर्थंकरों का परमोदारिक शरीर धातुरहित होता है, इसका भी इस ग्रंथ में खंडन किया है। इस ग्रंथ में केवलीमुक्ति और स्त्री मुक्ति का निषेध करने वाले दिगम्बर मत की समीक्षा दी गई है। साथ ही इसमें निश्चयनय और व्यवहार नय के सम्यक् स्वरूप का निर्णय किया गया है। विशेषतः मानव जीवन के दार्शनिक दृष्टिकोणों में आत्मा, शरीर, परमलोक, पुण्य, पाप, देव-नरक, बन्धन मुक्ति आदि को लेकर आस्तिक-नास्तिक दार्शनिकों में वाद-विवाद, खण्डन-मण्डन होता रहता है। लेकिन इन सभी चर्चाओं को प्रत्येक प्राणी समझ नहीं पाता है। नारकीय जीवन दुःखों से त्रस्त होने से तिर्यंच जीव सुनने पर भी विवेकशून्य विचारशून्य होने से देवता भोग-विलासों में मग्न होने से सुनने पर भी आचार-शून्य होते हैं लेकिन मनुष्य के पास ही ऐसी विचारशक्ति की प्रबलता होती है कि वह शंका कर सकता है, तर्क, वाद-विवाद कर और विवेकमय दृष्टि से परीक्षा कर सकता है और परमार्थ का निर्णय करके जीवन में अपना सकता है। इस विश्व के प्रांगण में पाश्चात्य संस्कृति को लेकर भौतिकवादी विद्वान् चिन्तन-मनन के आधार विज्ञान के क्षेत्र में अनेक आविष्कार जगत् के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं। , भारतदेश पूर्व से ही अध्यात्मवादी रहा है। अतः यहाँ अनेक दार्शनिकों, अध्यात्मयोगियों का अवतरण होता रहा है। इसी वजह से अध्यात्म क्षेत्र में अनेक प्रकार की विचारधारणाएँ विस्तृत बनती गईं, जैसे-आत्मा का अस्तित्व, उसके शाश्वत सुख, आलोक-परलोक सुख के कारणभूत साधनाविधि, आचार-अनुष्ठान, बन्धन-मुक्ति, पाप-पुण्य आदि के विषयों में अनेक विचार को अपने-अपने मन्तव्य प्रगट किये हैं और आज विश्व में, समाज में अनेक समुदाय शाखा-प्रशाखाएँ विद्यमान हैं। अध्यात्ममतपरीक्षा प्रस्तुत ग्रंथ में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर मत का विवेचन है। इनमें उपाध्याय ने दिगम्बर मत की मान्यता का निरसन किया है। दिगम्बरों की ऐसी मान्यता है कि केवली भगवंतों को कवलाहार नहीं होता है। इस बाबत ग्रंथकार महर्षि कह रहे हैं कि केवलज्ञान और कवलाहार दोनों अविरुद्ध हैं इसलिए जहां केवलज्ञान होता है, वहाँ जैसे मोहनीय कर्म आदि चार घाती कर्मों के विरोधी होने से संभवतः नहीं है। यही विरोध केवलज्ञानी और कवलाहार दोनों के होने में नहीं है। यह बात सिद्ध की है। 48 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org