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________________ धर्मों का परामर्श करता है। जो ऐसा नहीं है तो अनेकान्त में सम्यग एकान्त का अंतभाव ही नहीं होता। सम्यग् एकान्त यानी प्रतिपक्षी धर्म की अपेक्षा रखने वाला एकान्त इसलिए स्यात् की अनेकान्तता का द्योतक माना जाता है या नहीं के अनन्त धर्म का परामर्श करता है। इसलिए प्रमाण वाक्य में स्यात् पद अनन्त धर्म का परामर्श करता है और नय वाक्य में यह पद प्रतिपक्षी धर्म की अपेक्षा दिखाता है। गुरुतत्त्व विनिश्चय गाथा नं. 20 की स्वोपज्ञ वृत्ति में समयसार के निम्नलिखित पद्यों को अवतरणरूप में दिया गया है व्यवहारऽभूयत्थो भूयत्थो देसिओऽसदणओ। भूयत्थ मासिओ खतु सम्मदिट्ठी हवाइ जीवो।। सुद्धो सुद्धोदेसो णायगो परममाव दरिसीहिं। ववहारदेसिदा पुण जे उ अपरमे ठिवा भावे।। जइ ण वि सक्कमणाज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेउं / तह ववहारेण विणा, परमत्थुवएसणमसककं / / जा हि सुएणऽहिगच्छइ अप्पाणामेणं तु केवलं सुद्धं / तं सुअकेवलि मिसिणो, भणति लोगप्पईवयरा।। जो अ सुअनाणं सव्वं, जाणइ सुअ केवलि तमाहु जिणा। नाणा आदां सव्वं, जन्हां सुअकेवली तम्हा।। . अर्थात् व्यवहार नय अतात्विक है और शुद्ध नय तात्विक है। इसलिए जो तात्विक शुद्धनय का आश्रय लेता है वो ही जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टि है। ... शुद्धनय शुद्धद्रव्य को मानता है। आत्मा के शुद्धभाव को देखने वाले व्यक्ति ही शुद्धनय जानने योग्य है। पर जो अशुद्ध भाव में रहे हुए हैं, उनके लिए व्यवहार नय है। जैसे म्लेच्छ को म्लेच्छ की भाषा में समझा नहीं सकते, जैसे व्यवहार के बिना तत्त्व का प्रतिपादन नहीं होता है। जो शुद्ध आत्मस्वरूप का अनुभव करता है, उनको ही परमऋषि श्रुतकेवली मानते हैं। जो पूर्ण द्वादशांगीरूप श्रुतज्ञान को जानता है, जिनेश्वर उसे श्रुतकेवली कहते हैं। अर्थात् यहां पर व्यवहार श्रुतकेवली का लक्षण दिखाया, क्योंकि श्रुत के अर्थ का चिंतन करते-करते शुद्ध आत्मस्वरूप के अनुभव तक पहुंचा जाता है और इससे श्रुत व्यवहार शुद्ध आत्मस्वरूप के अनुभव के निश्चय का कारण है। व्यवहार एवं निश्चय नय की बात को प्रथम उल्लास में विशेष से बताकर उपाध्याय कह रहे हैं कि व्यवहार में आलसी जीव निश्चय में तत्त्व को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी बात की तुष्टि करते हुए आवश्यक सूत्र में बताया गया है कि गाथा नं. 40 की स्वोपज्ञ वृत्ति में आवश्यक सूत्र में इस संबंध में उल्लेख है संजमजोगेसु सया जेपुण संतविरिया वि सीअंति। ते कह विसुद्धचरण, बाहिरकरणालासा इति।।। 47 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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