________________ 86 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन (1) विश्लेषणात्मक-विधि (2) अभिनयात्मक-विधि। विश्लेषणात्मक-विधि का यह अनूठा ग्रन्थ है, क्योंकि कथाकार ने इसमें पात्रों के बाहर और भीतर दोनों ही प्रकार के विचारों, आदर्श गुणों एवं व्यवहार. आदि का चित्रण किया है जिसमें पाठक दोनों प्रकार की स्थिति को प्राप्त होता है। मन का परिवर्तन और तन का परिवर्तन विचारों और व्यवहारों से ही होता है। इसलिए ज्ञाताधर्मकथा के कथाकार ने कथाशिल्प के स्वरूप को अपने समय में जिस रूप में देखा था उस रूप में प्रस्तुत कर दिया किन्तु ये चरित्र आज भी जीवन्त हैं। 3. कथोपकथन कथा के विकास में जितना कथानक को महत्त्व दिया जाता है उतना ही कथोपकथन को भी दिया जाता है। इससे पात्र की स्थिति, विचार एवं स्वभाव आदि का ज्ञान होता है। ज्ञाताधर्मकथा में जो कथा-विकास हुआ है उसमें प्राय: कथोपकथन की शैली को अपनाया गया है। उत्क्षिप्तज्ञात में जम्बूस्वामी ने सुधर्मास्वामी से प्रश्न किया है- भगवन! ज्ञाताधर्मकथा का क्या अर्थ है? इस प्रश्न का समाधान सुधर्मा स्वामी ने इस प्रकार किया कि भगवन ने छठे अंग में ज्ञात और धर्मकथा नामक दो श्रुतस्कन्ध प्रतिपादित किए है।१ कथा के प्रारम्भ में जो जम्बू और सुधर्मा का संवाद है। वही आगे अन्य पात्रों के माध्यम से भी अपनाया गया है जैसे- अभयकुमार का धारिणी के साथ, श्रेणिक राजा का धारिणी को उद्बोधन, स्वप्न पाठकों का फलादेश, अभय की देवाराधना, मेघकुमार का जन्म, उसके कार्य, कला ग्रहण आदि सभी कथोपकथन के वैशिष्ट्य को लिए हुए हैं। द्वितीय संघाट अध्ययन में जम्बू की जिज्ञासा का समाधान सुधर्मा द्वारा किया जाना तथा भद्रा से धन्य सार्थवाह का यह कहना कि हे देवानुप्रिय! मेरे आने से तुम्हें सन्तोष क्यों नहीं है? हर्ष क्यों नहीं है? आनन्द क्यों नहीं है? 2 तब भद्रा कहती है मुझे सन्तोष, हर्ष और आनन्द क्यों होगा? क्योंकि आपने मेरे पुत्र के घातक को अपने भोजन में से भोजन कराया है। ऐसे ही कई प्रसंग इसमें भरे पड़े हैं। तृतीय अण्डक अध्ययन में सार्थवाह पत्रों के द्वारा गणिका से कहा गया कि हे देवानुप्रिय! हम तुम्हारे साथ सुभूमिभाग नामक उद्यान में विचरण करना चाहते हैं तब गणिका देवदत्ता ने कहा कि जैसा आप चाहते हैं वैसा ही होगा। कर्म अध्ययन के अन्तिम अनुच्छेद में संसार की असारता को उदाहरण के माध्यम से दर्शाते हुए यह कहा गया है कि हे आयुष्यमन् 1. ज्ञाताधर्मकथा, 1/9-10. 3. वही, 2/40. 2. वही, 2/45. 2. वही, 3/11-12. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org