________________ 78 . ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन पत्रात्मक शैली के रूप में स्थान नहीं दिया जा सकता है। उसे वर्णनात्मक, प्रतीकात्मक, भावात्मक, बोधात्मक, चित्रात्मक और उपदेशात्मक रूप में रखा जा सकता है। ज्ञाताधर्मकथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों को आधार बनाकर विकास को प्राप्त हुयी है। इसमें एक कथा नहीं, अपितु विविध कथाएं हैं जिनका काव्य-भेद की दृष्टि से धर्मकथा के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस कथाग्रन्थ के कथाकार ने उपदेश को महत्त्वपूर्ण बनाया है और ये सभी उपदेश कथा के स्वरूप को लिए हुए समाज की संवेदनशीलता से जुड़े हए हैं। इसलिए ज्ञाताधर्मकथा में धर्मतत्त्व की प्रधानता के साथ-साथ दृष्टान्तों की भी भरमार है। इस दृष्टि से इसके साहित्यिक स्वरूप को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है . . . 1. वर्णन प्रधान कथानक ज्ञाताधर्मकथांग के प्रथम अध्ययन उत्क्षिप्तजात का प्रारम्भ आर्य जम्बूस्वामी की जिज्ञासा एवं आर्य सुधर्मास्वामी के समाधान से होता है। इसमें अभयकुमार, धारिणी देवी, श्रेणिक राजा आदि का वैभवपूर्ण जीवन एवं उनके कृत कार्यों आदि का सामान्य विवेचन है। इसके मूल कथानकों के साथ राजा श्रेणिक के पुत्र का जो विवेचन किया गया है उसमें आदर्श जीवन का वर्णन है। मेघकुमार के तीन भवों का वर्णन कथात्मक स्वरूप को लिए हुए है। इसमें कथाकार ने मेघकुमार के द्वारा प्राप्त की गई 72 कलाओं और उनके कलाशिक्षक का भी उल्लेख किया है। सामान्य पात्र भी इस कथा को गति प्रदान करते हैं जिनमें कंचुकीरे का प्रमुख स्थान है। आधुनिक कथा में कथाकार ने ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक वातावरण के साथ-साथ संवेदनशीलता, सम्बद्धता, मौलिकता, कलाकौशल, सत्यता, अन्विति, जिज्ञासा, यथार्थता आदि का भी चित्रण किया है। ये सभी चित्रण ज्ञाताधर्म में उपलब्ध हैं(क) ऐतिहासिकता महावीर, आर्य सुधर्मा, आर्य जम्बूस्वामी, अभयकुमार, मेघकुमार, अरिष्टनेमि, कृष्ण, सुदर्शन सेठ, काशीराज, अदीनशत्रु, जीतशत्रु, पद्मनाभ पाण्डवपुत्र आदि आदर्श पुरुषों एवं रोहिणी, धारिणी, थावच्चा, मल्लीकुमारी, द्रौपदी, काली, राजी, रजनी, मेघा आदि ऐतिहासिक नारियों तथा अनेक श्रावक-श्राविकाओं के उल्लेख भी हैं। इसके सोलहवें अध्ययन में द्रौपदी के कथानक के साथ-साथ पाण्डुपुत्रों, हस्तिनापुर नगरी आदि के विवेचन इसकी ऐतिहासिकता को व्यक्त करती है। इसके तृतीय, 1. ज्ञाताधर्मकथांग 1/99. 2. वही, 1/111, 112. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org