SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञाताधर्मकथांग की विषयवस्तु 69 दुष्टा ने उस कड़वे तुम्बेवाले विषाक्त शाक को उस महातपस्वी मुनिराज को बहरा दिया। धर्मरुचि अनगार उस शाक को गुरुचरणों में ले गये एवं पारणे की अनुमति माँगी। गुरु उसकी गन्ध से ही समझ गये कि यह विषयुक्त हो गया है। उन्होंने उसे जमीन में दफन करने/गाड़ देने का निर्देश दिया। धर्मरुचि गुरु आज्ञा के पालनार्थ एकान्त में गये और वहाँ एक बूंद जमीन पर डालकर प्रतिक्रिया देखने लगे। सब्जी की सुगन्ध से सैकड़ों चीटियाँ आकर्षित होकर आयीं और उसको चखते ही मृत्यु को प्राप्त हो गयीं। यह हृदय विदारक दृश्य मुनि के कोमल हृदय को दहला गया। उन्होंने सोचा इस शाक को पटकने से सैकड़ों जीवों की हत्या हो जायेगी अत: अच्छा यही है कि मैं इसे अपने ही पेट में डाल दूं यह सोचकर मुनि ने वह आहार स्वयं कर लिया और शांत भाव से समाधि को प्राप्त हो गये। प्रसिद्ध उक्ति हैं कि 'पाप छिपाये ना छिपे।" नागश्री के पाप की चर्चा नगर भर में फैल गयी। परिवारजनों ने नागश्री को घर से निष्कासित कर दिया। सोलह रोगों से आक्रान्त हो वह नरक में उत्पन्न हुई। लम्बे जन्म-मरण के पश्चात् पुनः वह एक सेठ के घर में सुकुमालिका नाम से कन्या के रूप में उत्पन्न हुई। पाप फिर भी उसके पीछे पड़े रहे। वह किसी के स्पर्श के योग्य नहीं रही,क्योंकि उसका शरीर अत्यन्त तीक्ष्ण एवं अग्नि के समान गर्म रहता था। विवाहोपरान्त पति द्वारा त्याग दी गयी। पुन: उसका दूसरा विवाह एक भिखारी से करवाया गया, उसे अपार संपत्ति प्रदान की गयी, परन्तु प्रथम रात्रि को ही भिखारी उसे छोड़कर भाग गया। पुत्री के भाग्य एवं पूर्व में बंधे कर्मों के फल को देखकर सेठ ने उसे एक दानशाला खुलवाकर प्रतिदिन दान देने को कहा। सुकुमालिका प्रतिदिन अतिथियों, श्रमणों आदि को दान देने लगी। * एक दिन कुछ साध्वियों का उस दानशाला में आगमन हुआ। सुकुमालिका ने पोट्टिला की तरह पति हेतु याचना की। साध्वियों ने धर्मतत्त्व बताया और उसे धर्ममार्ग पर आरूढ़ कराया। .. मगर पूर्वजनित कर्मों से उसका मन साफ नहीं हुआ। वह आर्यिका बनने के बाद भी स्वछन्द भ्रमण करती हुई शिथिलाचारिणी हो गयी। एक दिन उसने एक वेश्या को पांच पुरुषों के साथ क्रीड़ा करते हुए देखा। सभी पुरुष उस वेश्या की . सेवा-सुश्रुषा कर रहे थे। उसी वक्त सुखभोग की लालसा से वशीभूत होकर वह संकल्प कर बैठी की अगर मेरी तपस्या में फल हो तो मैं भी इसी प्रकार पाँच Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy