________________ 46 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन की वर्णन प्रणाली में भी स्थापत्य होता है। 8. इतिवृत्तात्मक प्रक्रिया का आलम्बन- ज्ञाताधर्म की कथाओं में जिज्ञासा, . आश्चर्य एवं रोमांच है, फिर कथा नई करवट लेती है जो उत्साह, दु:ख, सुख, प्रेम आदि के साथ आगे बढ़ती है जिससे पाठक के भाव एवं वृत्तियों को बल मिलता है। कथाओं के अन्त में चरित्र का उत्कर्ष एवं जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों का विकास होता है। अधिकांश प्राकृत कथाकारों ने सहज पद्धति से कथाएँ लिखी हैं। इनमें कोई भी रंग भरने का प्रयास नहीं किया गया है। चरम बिन्दु का तो प्राकृत की प्रत्येक कथा में प्रायः अभाव पाया गया है। 9. विविधताओं का समावेश- प्राकृत कथाकारों ने वर्णन के रूप में निम्न बातों का ध्यान दिया है। (अ) संक्षिप्त और प्रसंगोचित्त वर्णन। (ब) मूल कथा के साथ अन्य कथाओं का समावेश। (स) कौतूहलपूर्ण घटनाएँ। (द) आदर्श चरित्रों की स्थापना के साथ धर्म-तत्त्व का वर्णन। (य) सरस वाक्यावली का समावेश। (र) पौराणिक एवं ऐतिहासिक तथ्यों का वर्णन। 10. मंडनशिल्प का प्रयोग- प्राकृत कथाओं में नगर, देश, राजभवन आदि के वैभव का वर्णन बहुत सुन्दर ढंग से किया गया है। 11. कथा के विभिन्न अंगों का स्थापत्य- शरीर के विभिन्न अंगों की तरह कथा के विभिन्न अंगों को सुव्यवस्थित करना कथा में रस एवं चमत्कार उत्पन्न करता है। वसुदेवहिण्डी 1 में कथा के छ: एवं पउमचरियं में कथा के सात अंग बताये गये हैं। 12. पात्रों की बहुलता- प्राकृत कथाओं में विभिन्न वृत्तियों वाले मानव और मानवेतर पात्र प्राप्त होते हैं। मानवेतर पात्रों में देव, दानव और तिर्यंच सम्मिलित हैं जबकि मानव-पात्रों में नर-नारी, बालक, बालिका, राजपुरुष, पुरोहित, मंत्री, सामान्य नागरिक, उत्कृष्ट समाज आदि सभी का समावेश है। 13. कथाओं की विशालता- प्राकृत की बहुत-सी कथाएँ इतनी बड़ी 1. कथोत्पतिः प्रस्तावना, मुख, प्रतिमुख, शरीर और उपसंहार। वासुदेवहिण्डी, पृ०-१. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org