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________________ प्राकृत कथा साहित्य का उद्भव एवं विकास 41 7. प्राकृत कथाओं में दान, शील, तप और सद्भाव रूप धर्म का निर्देश है। 8. इन कथाओं में धर्म, सम्प्रदाय, राष्ट्र, वर्ण आदि का चित्रण आचार, विचार, व्यवहार, सिद्धान्त, आदर्श, शिक्षण, संस्कार, रीति-नीति, राजतन्त्र, वाणिज्य व्यापार, आदि के रूप में भारत के सांस्कृतिक इतिहास की प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है। 9. इन कथाओं में उच्च, मध्यम व निम्न तीनों ही वर्गों को सम्मिलित कर सर्वसाधारण तक पहुंचने का प्रयास किया गया है। 10. इन कथाओं में चामत्कारिक घटनाओं, कार्य व्यापारों, व्यक्तित्व निर्माण, लोक कल्याण के साथ. मनोरंजक तत्त्वों का भी समावेश किया गया है। 11. प्राकृत कथाओं में संवाद शैली का विशिष्ट प्रयोग किया गया है। सूत्रकृतांग के छठे और सातवें अध्ययन में आर्द्रकुमार के गोशालक के साथ वार्तालाप में इस शैली का प्रयोग है। उत्तराध्ययन में ऐसे अनेक भावपूर्ण आख्यान हैं। कथा का वर्गीकरण कथा साहित्य चौथी शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक निरन्तर विकसित होती रही है। इस लम्बी दीर्घकालीन कालावधि में कथाओं के विभिन्न रूप हमें प्राप्त होते रहे हैं। दशवैकालिक में कथाओं के तीन भेद अकथा, कथा व विकथा प्राप्त होते हैं। अज्ञानी जीव एवं मिथ्यादृष्टि जिस कथा को कहते हैं वह संसार को बढ़ाने वाली होने के कारण अकथा कहलाती है। ... तप, संयम, दान व शील युक्त व्यक्ति लोक-कल्याण के लिए जिस कथा को कहता है, वह कथा कहलाती है। कुछ विद्वानों से इसे सत्कथा कहा है।२ प्रमाद, कषाय,. राग, द्वेष, चोर एवं समाज को विकृत करनेवाली कथा विकथा कहलाती है। दशवैकालिक में विषय की दृष्टि से कथा के चार भेद किये गये हैं अर्थ-कथा, काम-कथा, धर्म-कथा और मिश्र-कथा।३ 1. “अकहाकहा य विकहा अबिज्ज पुरिसंतर पप्प' दशवैकालिक गाथा 208-211. ...2. जिनसेन का महापुराण प्रथम पर्व, श्लोक 120. 3.. अत्थकहा कामकहा धम्मकहा चेव मिसिया य कहा। एतो एक्केक्कावि य णोगविहा होइ नायव्वो। दशवैकालिक गाथा-१८८. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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