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________________ प्राकृत कथा साहित्य का उद्भव एवं विकास आचारांग के छठे अध्याय में बताया गया कि एक कछुआ जिसे शैवाल के बीच में रहने वाले एक छिद्र से ज्योत्स्ना का सौन्दर्य दिखलाई पड़ा और जब वह पुनः अपने साथियों को दिखाने लाया तो वह छिद्र ही नहीं मिला। इससे त्याग मार्ग में निरन्तर सावधानी रखने का संकेत मिलता है जो रूपक कथा के विकास के लिए बड़ा उपयोगी सिद्ध होता है। इसी प्रकार आचारांग के द्वितीय स्कन्ध की तीसरी चूला में महावीर के जीवनवृत्त की कथा का संकेतात्मक रूप है। सूत्रकतांग के छठे एवं सातवें अध्ययन में आर्द्रकुमार एवं पेढाक पुत्र उदक का गौतम के साथ संवाद है।२ द्वितीय खण्ड के प्रथम अध्ययन में पुण्डरीक का दृष्टान्त कथा साहित्य का अद्वितीय उदाहरण है। सूत्रकृतांग में अनेक स्थानों पर प्रतिकों के माध्यम से विश्लेषण किया गया है। स्थानांग, समवायांग, भगवती आदि में पार्श्व एवं महावीर के जीवन की प्रमुख घटनाओं का वर्णन है। इसके द्वितीय अध्ययन में स्कन्द की कथा है।३ ज्ञाताधर्मकथा का जैन आगमों में कथा साहित्य की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त इस ग्रन्थ के प्रथम श्रुतस्कन्ध में 19 नीतिपरक कथाएँ हैं एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध में दस वर्गों में धर्म कथाएँ हैं। प्रथम अध्ययन में मेघकुमार का जीवन अहंकार त्याग कर सहिष्णु बनने और आत्मसाधना में लीन रहने का संकेत देता है। इसके द्वितीय अध्ययन में धन्ना और विजय चोर की कथा अंकित है। तृतीय में सागरदत्त और जिनदत्त की कथा है। चौथे में दो कछुओं और दो शृगालों, पांचवें में थावच्चा कुमार एवं सैलग राजश्री, सातवें में धन्य और उसकी चार पुत्रवधुओं की प्रतीक कथा है। आठवें . में मल्लीकुमारी, नवें में जिनदक्ष और जिनपाल, बारहवें में दुर्दरदेव, चौदहवें में अमात्य तेतली, सोलहवें में द्रौपदी, उन्नीसवें में पुण्डरीक और कुण्डरीक की कथाएँ है। इसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध में मानव, देव और व्यन्तर की चमत्कारिक घटनाएँ हैं। ___ उपासकदशांग के दस अध्ययनों में महावीरकालीन दस श्रावकों के दिव्य-जीवन .. 1. से बेमि से जहा वि कुम्मे हरए, आचारांग, 6/1, पृ०-४३७. 2. सूत्रकृतांग, अध्याय, 6-7. 3. भगवती, 2/1. 4. ज्ञाताधर्मकथा, अध्ययन 1 व 2. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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