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________________ प्राकृत आगम परम्परा एवं ज्ञाताधर्मकथांग जयधवला व धवला२ के अनुसार श्रुतधारकों के विलुप्त हो जाने से श्रुत विलुप्त हो गया। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के अनुसार अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी थे, जिनका स्वर्गवास श्वेताम्बर मान्यतानुसार वीर निर्वाण के 170 वर्ष बाद व दिगम्बर मान्यतानुसार वीर निर्वाण के 162 वर्ष बाद होना माना गया है। इन्हीं के स्वर्गवास के साथ चतुर्दश पूर्वधर या श्रुतकेवली का लोप हो गया और आगम विच्छेद का क्रम आरम्भ हुआ। वीर निर्वाण संवत् 216 में स्थूलिभद्र स्वर्गस्थ हुए। इसके बाद आर्य वज्रस्वामी तक दस पूर्वो की परम्परा चली, वे वीर निर्वाण संवत् 551 (विक्रम संवत् 81) में स्वर्ग सिधारे।३ यह भी माना जाता है कि आर्य वज्रस्वामी का स्वर्गवास वीर निर्वाण संवत् 584 अर्थात् विक्रम संवत् 114 में हुआ। दिगम्बर मान्यतानुसार अन्तिम दस पूर्वधर धरसेन हए और उनका स्वर्गवास वीर निर्वाण 345 में हुआ अर्थात् श्रुतकेवली का विच्छेद दिगम्बर परम्परा में श्वेताम्बर परम्परा की अपेक्षा 8 वर्ष पूर्व ही मान लिया गया, साथ ही दस पूर्वधरों का विच्छेद दिगम्बर परम्परा में श्वेताम्बर परम्परा की अपेक्षा 239 वर्ष पूर्व माना गया। आगम वाचनाएँ : भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद उनके उपदेश मौखिक रूप में सुरक्षित रहे। किन्तु बाद में गणधरों ने उनके उपदेश/वचनों को ग्रन्थों के रूप में प्रस्तुत किया। वर्तमान में जो आगम हमें उपलब्ध हैं उनको वर्तमान स्वरूप प्रदान करने में लम्बा समय लगा है, इसके लिए जैनाचार्यों ने कई आगम वाचनाएँ की हैं। उन वाचनाओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैप्रथम वाचना वीर निर्वाण 160 के आसपास जैन संघ को भंयकर दुष्काल से जूझना पड़ा। जिससे समस्त श्रमणसंघ छिन्न-भिन्न हो गया। दुर्भिक्ष के कारण साधु आहार की तलाश में सुदूर देशों की ओर चले गये। दुष्काल समाप्त होने पर विच्छिन्न श्रुत को संकलित 1. जयधवला, पृ०-८३. . 2. धवला, पृ०-६५. 3. शास्त्री, देवेन्द्र मुनि- जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, पृ०-३९. 4. मालवणिया पं० दलसुख, आगम युग का जैन दर्शन, पृ०-१६. 5. उपासकदशांगसूत्र, मुनि आत्माराम, प०-९. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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