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________________ 6 . ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन मौखिक परम्परा ही क्यों प्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञ और इतिहासकार महोमहापाध्याय गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा . का मत है कि हमारे पूर्वजों को ताड़पत्र, कागज, स्याही, लेखनी आदि का परिचय एवं प्रयोग की विधि का ज्ञान था। जैन शास्त्रों को लिखने का सामर्थ्य भी जैनाचार्यों में था। फिर भी स्मरण रखने का मानसिक भार साधुओं की आचारचर्या एवं साधना पद्धति को ध्यान में रखते हुए उठाया गया। यह विदित है कि लेखन में कागज, स्याही, लेखनी आदि का समावेश होता है और इनके रखने व प्रयोग से हिंसा की सम्भावनाएँ रहती है। अत: लेखन नहीं करने में निम्न पहलू उल्लेखनीय रहे.. 1. अहिंसा का पालन जैन साधक मन, वचन, काय द्वारा हिंसा न करने, न करवाने व अनुमोदन न करने की प्रतिज्ञा करते हैं। आचारांग आदि साधुचर्या के मूल ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि साधु ऐसी वस्तु स्वीकार नहीं करते जिसमें थोड़ी-सी भी हिंसा. की संभावना होती हो। 2. परिग्रह की संभावना जैन साधक को हिंसा एवं परिग्रह की संभावना होने से निर्वाण में बाधाएँ उपस्थित होती हैं इस कारण लेखन की उपेक्षा की गई। ‘बृहत्कल्पसूत्र' में स्पष्ट उल्लेख है कि पुस्तक रखने से प्रायश्चित्त आता है। 3. आन्तरिक तप ____पुस्तकों के रहने से श्रमण धर्म-वचनों का स्वाध्याय कार्य नहीं करते। धर्म-वचनों को कंठस्थ कर उनका बार-बार स्वाध्याय करना एक तप है, पुस्तक रखने से यह तप मन्द पड़ने लग जाते हैं और साधक शुद्ध-अशुद्ध बोलकर एक औपचारिकता मात्र पूरा करने लगते हैं, अत: यह उचित नहीं माना गया। आगम विच्छेद ___महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् श्रमणों के क्रिया-कलापों व आचार-विचारों में निष्क्रियता आने लगी। जैन धर्म सम्प्रदायों में विभाजित होकर अचेलक व सचेलक परम्पराओं में बंट गया। श्रमण अपरिग्रह को छोड़कर परिग्रह धारण करने लगे। बीच-बीच में प्रकृति के प्रकोप के कारण भी धर्मशास्त्रों का यथावत स्वाध्याय करना कठिन होता गया। इस कारण आगम विच्छेद का क्रम शुरू हुआ। इस आगम विच्छेद के बारे में दो मत प्रचलित हैं। प्रथम के अनुसार श्रुतधारक ही लुप्त होने लगे। 1. आचारांग-सूत्र, मुनि मधुकर, सूत्र 1/1. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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