________________ ज्ञाताधर्मकथांग का भाषा विश्लेषण 123 सुमिणं सम्मं पडिच्छइ इयाणि अणिट्ठा द्वितीया एकवचन द्वितीया बहुवचन वणं वणाइ, वणाई, वणाणि, वणाणिं विपुलं असणं, पाणं... पुबुद्दिट्ठाई महव्वयाइं३ उवक्खडावेन्ति बहूणि वासाणि नोट:- तृतीया विभक्ति से लेकर सप्तमी विभक्ति पर्यन्त नपुंसकलिंग में पुलिंग की तरह ही रूप चलते हैं। 24. स्त्रीलिंग- इस शब्द रूप में अकारांत, इकारांत, ईकारांत आदि शब्द होते हैं। जिनमें मूलतः पुलिंग बहुवचन के प्रत्यय ही प्रयुक्त होते हैं। फिर भी कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य पाये जाते हैं। (1) प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सामान्य रूप से प्रत्यय का लोप हो जाता है और लोप होने पर हस्व स्वर का दीर्घ हो जाता है और दीर्घ स्वर दीर्घ ही रहता है। यथा- सा णावा विमुक्कबंधणा, 6 अत्थसिद्धी 8/58 (ह्रस्व का दीर्घ) - रोहिणी, मल्ली, माइंदी (दीर्घ का दीर्घ) (2) प्रथमा बहुवचन में ह्रस्व स्वर का दीर्घ, दीर्घ का दीर्घ एवं ओ और उ प्रत्यय .... भी होते हैं। यथा- पंच महव्वया संवड्डिया भवंति (ह्रस्व का दीर्घ) - ते साली पत्तिया वत्तिया (दीर्घ का दीर्घ) भारियाओ चत्तारि सुण्हाओ होत्था, 7/3 (ओ का प्रयोग) धनाओ पणं ताओ अम्मयाओ, 2/11 . (3) द्वितीय विभक्ति एकवचन में अनुस्वार होता है। अनुस्वार होने पर यदि दीर्घ शब्द है तो उसका हृस्व हो जाता है और ह्रस्व का हस्व ही रहता है। यथा 'पेसणकारिं महाणसिणिं', 7/22 / मिहिलं रायहाणिं, 8/133 / 1. ज्ञाताधर्मकथा, 1/40. 2. वही, 1/93. 3. वही, 1/14. 4. वही, 14/54. . 5. वही, 8/6. 6. वही, 8/59. 7. वही, 1/11. 8. वही, 7/31. 9. वही, 7/11. For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org