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________________ 104 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन तत्त्वों की कमी नहीं हुई है। ज्ञाताधर्म में आलंकारिकता सफल कलाकार की कला सुन्दर भावों, सुन्दर विचारों, सुन्दर दृश्यों एवं प्रांजल भाषा से ही व्यक्त होती है। परन्तु अलंकार. के बिना वर्णन, भावाभिव्यक्ति एवं चित्रात्मक विवेचन रमणीयता को प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए प्रत्येक कथाकार सीधे सादे शब्दों की अपेक्षा आलंकारिक शब्दों के प्रयोग से कथा को प्रभावी बनाता है और अपनी अनुभूति से चमत्कार, आकर्षण, स्वरों की मंजुलता, शब्दों की मधुरता, वाणी की प्रेषणीयता आदि से अशिक्षित एवं निरक्षर लोगों में भी अपना स्थान बना लेता है। ज्ञाताधर्मकथा में मात्र धार्मिक एवं सामाजिक कथायें ही नहीं हैं अपितु साहित्यिक झलक से अलंकृत कथायें भी हैं। ___ कथाकार का मूल उद्देश्य जो भी हो परन्तु यह निश्चित है कि उसने वर्णन प्रसंगों में अलंकृत शब्दों से कथा को रोचक बनाया है। कथा कहने की शैली में प्राचीन है फिर भी नवीन प्रयोगों की दृष्टि से किसी माने में पीछे नहीं है। तेणं कालेणं तेणं समएणं' आदि जैसे प्रयोग प्रारम्भ में ही पद लालित्य से व्यक्ति को प्रभावित कर देते हैं। वर्णन प्रसंगों, प्रकृति प्रत्यय, जिज्ञासा, समाधान आदि से युक्त वातावरण उपस्थिति करके व्यक्ति को प्रभावित करना ज्ञाताधर्म की प्रमुख विशेषता है। पात्र चरित्र-चित्रण, प्रकृति वर्णन, तत्त्व विवेचन, सत्य निरूपण, संयम प्रतिपादन, व्रत, महात्म्य आदि में कहीं रूपक, कहीं उत्प्रेक्षा,. कहीं दृष्टान्त और कहीं उपमा अलंकारों को देखा जा सकता है।१ ज्ञाताधर्मकथा के कथाकार ने चरित्र-चित्रण, प्रकृति वर्णन आदि में उपमा अलंकार का विशेष प्रयोग किया है। यथा- करयलमलिय व्व चंपगमाला,२ गिद्धे विव आभिसभक्खी,३ लोहमया इव जवा चावेयव्वा, वालुयाकवले इव नि-स्साए, गंगा इव महानदी पडिसोयगमणा, महासमुद्दो इव भुयाहिं दुत्तरे, तिक्खं कमियव्वं गुरुअं लंयव्वं असिधार व्व संचरियव्वं' इत्यादि उपमा अलंकारों५ से अलंकृत है। इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन दृष्टान्त अलंकार की शैली को लिए हए हैं। संघाट में सार्थवाह और चोर का दृष्टान्त अण्डक में मयूरी के अण्डे 1. इन अलंकारों के उदाहरण भाषा विश्लेषणवाले अध्ययन में विस्तार से दिये गये हैं. 2. ज्ञाताधर्मकथांग 1/45. 3. वही, 2/30. 4. वही, 1/128. 5. वही, 1/135. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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