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________________ 103 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक अध्ययन इस प्रकार ज्ञाताधर्म कथा में लोककथा के कई प्रसंग घटनाक्रम में आये हैं। कथाकार ने लोकाचारों, लौकिक विश्वासों एवं लोकचिन्ता द्वारा आश्चर्यजनक घटनाओं को उपस्थित किया है। देवी-देवता आदि दिव्य मानवीय विश्वासों का स्वरूप भी इस कथा ग्रन्थ में आया है। पशु-पक्षियों से सम्बद्ध लोक रुढ़ियाँ, वैज्ञानिक अभिप्राय, सामाजिक परम्परा, रीति-रिवाज एवं परिस्थितियों के चित्रण से भी लोक का स्वरूप स्पष्ट हुआ है। इसमें आध्यात्मिक एवं मनौवैज्ञानिक रुढ़ियाँ भी घटनाक्रम में आई हैं। शुभ-अशुभ दोनों ही प्रकार के स्वप्न घटित घटनाओं की सूचना देते हैं एवं भविष्यवाणियाँ भी भावी संकेत को स्पष्ट कर देती हैं। इस प्रकार अनेक रुढ़ियों का समावेश धार्मिक कथानक में हो जाना कथानक की गतिविधि को नया स्वरूप प्रदान करती है। 12. जनभाषा के तत्त्व ___ज्ञाताधर्मकथा में सामान्यत: अर्धमागधी भाषा का प्रयोग हुआ है। परन्तु कहीं-कहीं पर प्रचलित जनभाषा के रूप में देशी शब्द भी आ गए हैं। यद्यपि यह लोककथा का ग्रन्थ नहीं है फिर भी जन सामान्य में प्रचलित भाषा ने इसमें स्थान अवश्य बनाया है। देशी भाषा के उदाहरणों को भाषागत विवेचन में दिया गया है। यथाहील' हीनता के लिए तथा बोलरे कलकल आदि के लिए प्रसिद्ध है। 13. सरल अभिव्यंजना ज्ञाताधर्मकथा में सर्वत्र सरल अभिव्यंजना प्रस्तुत की गई है। इसकी प्रत्येक कथा एवं चरित्र-चित्रण में सन्दर विचारों एवं भावों को अभिव्यक्त करने के लिए सरल मार्ग अपनाया गया है। यथा- अहासहं देवाणप्पिया। मा पडिबंध कहेह।३ हे देवानुप्रिय! प्रतिबंध मत करो। एवं संपेहेइ संपेहित्ता कल्लं जाव। (7/5) तुमं णं पत्ता। (7/6) बुज्झाहि भयवं। लोगनाहा। (8/165) आदि प्राकृत की शब्दावलियाँ सरल अभिव्यंजना को ही अभिव्यक्त करती हैं। '14. परम्परा की अक्षुण्णता - ज्ञाताधर्म की कथाएँ लोक प्रचलित कथाएँ नहीं हैं परन्तु विषय की अनुभूति से ऐतिहासिक और पौराणिक परम्पराओं का बोध होता है। कथानक में वर्णित विभिन्न प्रसंगों में लोकजीवन के आदर्श और जनविश्वासों की अक्षुण्ण परम्पराएँ देखी जा सकती हैं। इसमें घटना चमत्कार, मंत्र-तंत्र आदि की अभिव्यक्ति से लोककथा के - 1. ज्ञाताधर्मकथांग, 3/20. 2. वही, 8/57. 3. वही, 1/195. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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