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________________ 96 . ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन कितना मंगलकार्य कर सकता है। मल्ली अध्ययन में मल्ली का चोक्ख नामक परिव्राजिका के लिए दिया गया उपदेश लोकमंगल की कामना से युक्त है, क्योंकि वह सर्वत्र शान्ति चाहती थी। माकन्दी अध्ययन में सर्वत्र ही मंगलकामना की गयी है। इसी तरह से अन्य अध्ययनों में प्राणी की रक्षा, अनुकम्पा, दया, सुख-शान्ति एवं स्वस्थ वातावरण की कामना की गयी है। इस प्रकार ज्ञाताधर्म के प्रत्येक पात्र के उन्नत विचार लोकहित में सहभागी बने हुए आत्महित की ओर अग्रसर होते हैं। 2. धर्मश्रद्धा आगम का विषय आस्था का प्रतीक है। सभी जगह ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, संयम आदि पर श्रद्धा व्यक्त की गयी है। आर्य जम्बू नामक अणगार को तत्त्व के विषय में श्रद्धा उत्पन्न हुई।१ मेघकुमार राजपुत्र होते हुए भी माता-पिता के सामने धर्मभाव से युक्त होकर दीक्षा धारण कर लेता है। वह महावीर के पास जाकर कहता है कि मुझे शिष्य भिक्षा दीजिए।२ मेघकुमार के उग्र तपश्चरण में उपवास, बेला, तेला आदि का क्रम तप की श्रद्धा को ही व्यक्त करता है।३ धन्य की पर्युपासना में निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति रुचि धर्म श्रद्धा के अपूर्व चिन्तन को प्रस्तुत करती है।" रोहिणी ज्ञात, अध्ययन में माता-पिता के प्रति आज्ञाभाव भी यही संकेत करता है कि जो अंगीकार किया है उस पर विचार करें तद्नुसार आचरण करें। आचरण के उपरान्त उसकी वास्तविकता का प्रचार एवं प्रसार करें। इसी प्रकार धर्मश्रद्धा के सात्विक गुण मल्ली, उदक, दर्दुरज्ञात, तैतलिपुत्र, द्रौपदी आदि अध्ययनों में दर्शाये गये हैं। ज्ञाताधर्म की कथाओं में माता-पिता के प्रति आदर भाव, अहिंसक भाव, सत्य भाव, अचौर्य भाव, ब्रह्मचर्य रक्षा और अपरिग्रह आदि के प्रति गतिशील, प्रयत्नशील होने का भाव सन्निहित है। इसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध में ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना पर विशेष बल दिया गया है, क्योंकि इनसे ही सुख शान्ति उत्पन्न हो सकती है। 3. रहस्य भावना ज्ञाताधर्म की कथाओं में छिपी हुई शक्तियों का भी उद्घाटन किया गया है। उत्क्षिप्तज्ञात नामक प्रथम अध्ययन में अभयकुमार की औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी- ये चार बुद्धियाँ ज्ञान के उत्कर्ष को व्यक्त करती हैं। माकन्दी अध्ययन में दक्षिणवन के विवेचन में वधस्थान का ज्ञान रहस्यात्मक ढंग से कराया 1. ज्ञाताधर्मकथांग 1/7. 3. वही, 1/199 5. वही, 1/15. 2. वही, 1/156. 4. वही, 2/52. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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