________________ 92 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन 2. पद एवं वाक्य द्वारा दृश्य परिवर्तन 3. वर्णणात्मक उक्ति वैचित्र्य 4. सादृश्यमूलक दृष्टिकोण 5. उपमा आधारित पद रचना 6. रूपकात्मक दृष्टिकोण 7. प्रतिकात्मक विवेचना उक्त सभी भाव कथा की मूल आत्मा में सर्वत्र देखे जा सकते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि स्वाभाविकता, भावप्रकाशन, उत्सुकता, गतिशीलता आदि से युक्त विचारों से गद्य में काव्यशैली का-सा आनन्द आ गया है। अलंकृत भाषा की गतिशीलता से ज्ञातधर्मकथा के गद्यांश पात्रों के चरित्र-चित्रण के साथ-साथ उनके परिवेश की छाप पढ़नेवाले के ऊपर अवश्य ही छोड़ते हैं। यही भाषा-शैली की मूल संवेदना है और यही भाषा-शैली का दृष्टिकोण भी कहा जा सकता है। 6. उद्देश्य कथा या काव्य का निरूपण साहित्यकार जिस रूप में करता है वह किसी न किसी प्रकार के उद्देश्य को लेकर के ही निरुपित करता है। प्राचीन समय में धर्मोपदेश के लिए कथाओं को कहा जाता था बाद में उसे ही सृजनात्मक रूप में उपस्थित किया गया। मध्यकाल में साहित्य को नये रूप में प्रस्तुत किया गया जिसे सुधारवादी दृष्टिकोण कह सकते हैं। सुधारवादी दृषिटकोण से तात्पर्य है- पूर्व में कथाकार या काव्यकार ने जो कुछ भी कथन किया था उसे तत्कालीन परिस्थितियों के साथ जोड़कर सुधारवादी दृष्टिकोण को अपनाना। इस युग में काव्य का प्रणयन यश, कीर्ति, धनोपार्जन आदि के उद्देश्य से किया गया, परन्तु जो कुछ भी लिखा गया उसमें भी आनन्द, प्रकृति वर्णन, सामाजिक सुरक्षा, धर्म-दर्शन, नीति सदाचार आदि को महत्त्व दिया गया। अत: साहित्यकार की कृति का मूल उद्देश्य समसामयिक परिस्थितियों को लेकर विवेचन करना ही होता है। यही उद्देश्य आनन्द की प्राप्ति में सहायक होता है। इससे ही, यथार्थ एवं आदर्श का परिचय हो पाता है। ज्ञाताधर्मकथा की प्रत्येक कथानक का अपना उद्देश्य है। प्रथम अध्ययन की कथा में अभयकुमार और मेघकुमार का माता-पिता के प्रति आज्ञाकारी होना शिक्षापद्धति का एक उच्च आदर्श है। माता-पिता का भी पत्र के प्रति क्या कर्तव्य है क्या नहीं? इस भाव को इस कथा में देखा जा सकता है। संघाट नामक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org