________________ 88 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन - सातवें अध्ययन की रोहिणी कथा में चरित्र की श्रेष्ठता को अंकित करते हुए सेठ एवं पुत्रवधुओं की वार्तालाप नीति एवं सदाचार की स्थापना करने में सहकारी है। मल्ली नामक अध्ययन विस्तारयुक्त कथोपकथन को लिए हुए मल्ली के चरित्र को प्रस्तुत करता है। माकन्दी नामक नवें अध्ययन में प्रकृति की सुकुमारिता को कथोपकथन के रूप में ही प्रस्तुत किया गया है। यथा तत्थं णं तुब्भे देवाणुप्पिया! वावीसु य जाव विहराहि।१ हे देवानुप्रिय! तुम वापियों में विचरण करो। वे वापियाँ और वनखण्ड कैसे .. हैं इस विषय में कहा है सहकार-चारुहारो, किंसुय कण्णियारासोग- मउडो। ऊसियतिलग-बउलायवत्तो, बसंतउऊ णरवई साहीणो।२ पाडल सिरीस-सलिलो, मलिया वासंतिय धवलवेलो। सीयल सुरभि-अनल-मगरचरिओ, गिम्हउऊ-सागरो साहीणो। 3 अर्थात् उस वन में सहकार। आम्रमंजरियों के मनोहर हार हैं, वहाँ किंशुक, कर्णिकार, अशोक आदि पुष्पों के मुकुट हैं तथा ऊँचे-ऊँचे तिलक और वकुल वृक्षों के पुष्पित छत्र हैं। उस वन में पाटल, शिरीष रूपी जल है। मल्लिका और वासन्ति की लताएँ धवलित हैं तथा शीलत मन्द पवन भी चल रही है। इसी तरह के अंशों से परिपूर्ण माकन्दी अध्ययन में प्रकृति सौन्दर्य को कथोपकथन के रूप में व्यक्त किया गया है। चन्द्र अध्ययन में भी कथोपकथन है। यह सबसे छोटा अध्ययन है। ग्यारहवें दावद्रव अध्ययन में भी संवाद रूप में कथा का विकास हुआ है। बारहवाँ उदक नामक अध्ययन इससे अछूता नहीं है। दर्दुरज्ञात नामक तेरहवें अध्ययन में गौतम के द्वारा पूछा गया है कि देवजुई दिव्वे देवाणभावे कहिं गया? देवऋद्धि कहाँ गई? भगवन ने उत्तर दिया-गोयमां सरीरं गया सरीरं अणुपविट्ठा कूडागारदिळंतो। अर्थात् हे गौतम! देवऋद्धि शरीर में गयी, शरीर में प्रविष्ट हो गयी। चौदहवाँ तेतलिपुत्र, पन्द्रहवां नन्दीफल, सोलहवाँ अमरकंका (द्रौपदी) आदि सभी अध्ययनों में कथोपकथन के बिना कथाकार ने कथा का विकास नहीं किया है। कथोपकथन के तीन गुण माने गये हैं 1. कथानक का विकास- प्रत्येक कथा का कथानक कथोपकथन से विकास को प्राप्त हआ है। इससे ज्ञाताधर्म की कथा में स्वाभाविकता आ गई है और इसी से पात्रों के गुणों की पहचान भी करायी गई है। 1. ज्ञाताधर्मकथा 9/24. 2. वही, 9/25. 3. वही, 9/25. 4. वही, 13/5. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org