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________________ और आगे अंग- श्रुतका विच्छेद हो जायेगा। - इस प्रकार उत्पन्न हो गया है भय जिनको, ऐसे उन धरसेनाचार्य ने महामहिमा अर्थात् पंचवर्षीय साधु-सम्मेलन में सम्मिलित हुए दक्षिणापथ के (दक्षिण देश के निवासी) आचार्यों के पास एक लेख (पत्र) भेजा । लेख (पत्र) में लिखे गये धरसेनाचार्य के वचनों को भलीभांति समझकर, (दक्षिणापथ के) उन आचार्यों ने शास्त्र के अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ, नाना प्रकार की उज्ज्वल और निर्मल विनय से विभूषित अंगवाले, शीलरूपी माला के धारक, गुरुओं द्वारा प्रेषण (भेजने) रूपी भोजन से तृप्त हुए, देश, कुल और जाति से शुद्ध, अर्थात् उत्तम देश, उत्तम कुल और उत्तम जाति में उत्पन्न हुए, समस्त कलाओं में पारंगत और तीन बार पूछा है आचार्यों से जिन्होंने, (अर्थात् आचार्यों से तीन बार आज्ञा लेकर) ऐसे (पुष्पदन्त और भूतबलि नामक दो साधुओं को आन्ध्र-देश में बहनेवाली वेणानदी के तट से भेजा। मार्ग में उन दोनों साधुओं के आते समय, जो कुन्द के पुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान सफेद वर्णवाले हैं, जो समस्त लक्षणों से परिपूर्ण हैं, जिन्होंने आचार्य (धरसेन) की तीन प्रदक्षिणा दी हैं और जिनके अंग नम्रत होकर आचार्य के चरणों में पड़ गये हैं ऐसे दो बैलों को धरसेन भट्टारक ने रात्रि के पिछले भाग में स्वप्न में देखा। इस प्रकार स्वप्न को देखकर संतुष्ट हुए धरसेनाचार्य ने 'जयउ सुय देवदा' (श्रुतदेवता जयवन्त हो ) - ऐसा वाक्य उच्चारण किया। उसी दिन दक्षिणापथ से भेजे हुए वे दोनों साधु धरसेनाचार्य को प्राप्त हुए। उसके बाद धरसेनाचार्य की पादवन्दना आदि कृतिकर्म करके और दो दिन बिताकर तीसरे दिन उन दोनों ने धरसेनाचार्य से निवेदन किया कि 'इस कार्य से हम दोनों आपके पादमूल को प्राप्त हुए हैं।' उन दोनों साधुओं के इस प्रकार निवेदन करने पर 'अच्छा है, कल्याण हो' इस प्रकार कहकर धरसेन भट्टारक ने उन साधुओं को आश्वासन दिया। Jain Education International ७२ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004257
Book TitlePrakrit Bhasha Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPhoolchand Jain Premi
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2013
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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