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४. शौरसेनी प्राकृत ..
शौरसेनी प्राकृत भाषा शूरसेन जनपद अर्थात् मथुरा प्रदेश और इसके आसपास सम्पूर्ण ब्रजमण्डल में बोली जाने वाली लोक बोली एवं भाषा रही है। शूरसेन जनपद की स्थापना बाईसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ के एक यादव-वंशी पूर्वज शूरसेन ने की थी। प्राचीन वाङ्मय से ज्ञात होता है कि यदुवंश के इस प्रतापी नरेश ने शौरीपुर नगर बसाया था। इस वंश में समुद्रविजय, वसुदेव, बाईसवें तीर्थंकर भगवान् नेमिनाथ, नौवें बलभद्र बलराम और नौवें नारायण श्रीकृष्ण आदि प्रतापी राजा हुए। . इनके प्रभावक व्यक्तित्व और अजेय शौर्य ने समस्त संसार में शूरसेन जनपद को, जो महाराज शूरसेन के नाम पर स्थापित हुआ था, महान् गौरव प्रदान किया और उस जनपद में बोली जाने वाली भाषा शूरसेन जनपद के नाम पर शौरसेनी कहलाने लगी। .
षड्भाषाचन्द्रिकाकार लक्ष्मीधर ने शौरसेनी का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है - 'शूरसेनोद्भवा भाषा शौरसेनीति गीयते'। अर्थात् - . शूरसेन देश में उत्पन्न हुई भाषा शौरसेनी कही जाती है।
इस भाषा का प्रचार-प्रसार पूर्व में कलिंग, पश्चिम में सौराष्ट्र तथा दक्षिण में कर्नाटक, आन्ध्र, तमिल आदि अनेक प्रदेशों तक था। मध्य-देश (गंगा-यमुना की उपत्यका) तो इसका मूलस्थान ही था। मध्यदेश प्राचीन भारतीय संस्कृति का प्रमुख केन्द्र और संस्कृत नाटकों
की उत्पत्ति का भी प्रमुख केन्द्र रहा है। इस भाषा की यह महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि इस भाषा का उद्भव और विकास उत्तर भारत में हुआ किन्तु इस भाषा में साहित्य का अधिक प्रणयन दक्षिण भारत में हुआ।
दिगम्बर जैन परम्परा के प्रमुख आगमिक तथा सैद्धान्तिक ग्रन्थ इसी भाषा में निबद्ध हैं। इनमें षट्खण्डागम, कसायपाहुडसुत्त जैसे
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