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प्राच्य भाषाविद् और साहित्यकार पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने पुरानी हिन्दी नामक अपनी पुस्तक में प्राकृत-भाषा और छान्दस का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए लिखा है – “ऋग्वेद पूर्वकालीन जनसामान्य की आदिम प्राकृत से विकसित-भाषा ही वह छान्दस है, जिससे कि ऋग्वेद की रचना हुई। यही नहीं, बल्कि उनके अनुसार आदिम प्राकृत से विकसित उक्त छान्दस से परवर्ती युगों में दो साहित्यिक भाषाओं का विकास हुआ - लौकिक संस्कृत एवं साहित्यिक प्राकृत। आगे चलकर नियमबद्ध हो जाने के कारण लौकिक-संस्कृत का प्रवाह तो अवरुद्ध हो गया, जबकि प्राकृत का प्रवाह बिना किसी अवरोध के आगे चलता रहा, जिससे क्रमशः अपभ्रंशभाषा तथा उस अपभ्रंश से ब्रज, हिन्दी, मैथिल, मगही, भोजपुरी, बंगला, उड़िया, बुन्देली आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ।
स्कम्भ, विकट, कीकट, निकट, दण्ड, पठ्, घट, क्षुल्ल, उच्चा, नीचा, पश्वा, भोतु, दूडभ, दूलभ, इन्द्रावरुणा, मित्रावरुण जैसे अनेक शब्द वेदों में विद्यमान हैं, जो तत्कालीन जनभाषाओं में प्रचलित रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि वैदिककाल में प्रादेशिक बोलियों आदि के रूप में जनभाषायें विद्यमान थीं, जिनका प्रभाव छान्दस पर पड़ा है। इस तरह वैदिक-भाषा के समानान्तर जनभाषा के रूप में प्राकृत-भाषा निरन्तर विकसित होती जा रही थी।
वस्तुतः प्राचीन भारतीय आर्य भाषा का स्वरूप ऋग्वेद की प्राचीन ऋचाओं में सुरक्षित है। छान्दस या वैदिक भाषा उस समय की साहित्यिक भाषा थी, जो जनभाषा का परिष्कृत रूप है छान्दस भाषा, जिसमें लोक भाषा के अनेक स्रोत मिश्रित थे, पाणिनी ने जिस भाषा को व्याकरण द्वारा परिमार्जित और परिष्कृत किया, साहित्यिक संस्कृत रूप को प्राप्त हुई। आचार्य पाणिनी ने वैदिक वाङ्मय की भाषा को छान्दस और लोकभाषा को भाषा कहा है। इससे भी प्राकृत की प्राचीनता और
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