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________________ से प्राप्त हुए हैं। स्तम्भ लेख टोपरा (दिल्ली), मेरठ, कौशम्बी (इलाहाबाद), रामपुरवा (अरेराज), लौरिया (नन्दनगढ़), रूपनाथ (जबलपुर), सहसराम (शाहाबाद), वैराट (जयपुर) प्रभृति स्थानों से प्राप्त हुए हैं। इससे स्पष्ट है कि प्राकृत का जनभाषा के रूप में सर्वत्र प्रचार था। आन्ध्र राजाओं के शिलालेखों के अतिरिक्त लंका, नेपाल, कांगड़ा और मथुरा प्रभृति स्थानों से प्राकृत भाषा में लिखे गये शिलालेख उपलब्ध हुए हैं। सागर जिले से ईसा पूर्व तीसरी शती का धर्मपाल का सिक्का मिला है, जिसपर 'धमपालस' लिखा है। एक दूसरा महत्त्वपूर्ण सिक्का ईसा पूर्व दूसरी का शती का खरोष्ठी लिपि में लिखा दिमित्रियस का मिला है, जिस पर 'महरजस अपरजितस दिमे लिखा है। इतना ही नहीं ईस्वी सन् की प्रथम-द्वितीय शती तक के प्रायः समस्त शिलालेख . प्राकृत में ही लिखे उपलब्ध हुए हैं। अतः जनभाषा के रूप में प्राकृत का प्रचार प्राचीन भारत में था। वैदिक (छान्दस) भाषा और प्राकृत प्राचीन भारतीय आर्य-भाषा के अन्तर्गत संस्कृत-भाषा के दो रूप विद्यमान हैं - वैदिक संस्कृत तथा लौकिकं संस्कृत। इनमें प्राचीन संस्कृत के रूप में जानी जाने वाली छान्दस भाषा, वैदिक-संस्कृत के रूप में प्रसिद्ध है। प्राचीन चारों वेद, ब्राह्मण-ग्रन्थ और उपनिषदों की भाषा वैदिक संस्कृत मानी जाती है। यद्यपि इन सबके उपलब्ध शताधिक ग्रन्थों की भाषा में एकरूपता नहीं दिखती। ऋग्वेद के प्रथम और दसवें मण्डल को छोड़कर शेष की भाषा काफी प्राचीन है। जबकि प्रथम और दसवें मण्डल की भाषा बाद की प्रतीत होती हैं। इसी तरह अन्य तीनों वेदों (यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) की भाषा, ब्राह्मणों और उपनिषदों की (कुछ अपवादों को छोड़कर) भाषा का क्रमिक विकास दृष्टिगोचर होता है। वेदों में वैदिक-संस्कृत के जो रूप आज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004257
Book TitlePrakrit Bhasha Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPhoolchand Jain Premi
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2013
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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