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एहो रुवंतु, सकम्मु निंदंतु चंडालें सह गच्छंतु अत्थि, तइयर्ल्ड एक्कु कारुणिउ बुद्धिणिहाणु वहाहे नेइज्जमाणु तं दणं कारणु णाइ तासु रक्खणसु कण्णि किंपि कहेप्पिणु उवाय दंसेइ। हरिसंतु जावेहिं वहस्सु थंभि ठविउ तावेहिं चंडालु तं पुच्छइ – ‘जीवणु विणा तउ कावि इच्छा होइ, तया मग्गियव्वा।' सो कहेइ – महु नरिंद मुह दंसण इच्छा अत्थि। तया सो नरिंद समीवं आणीउ। नरिंदु तं पुच्छइ - एत्थु आगमण किं पओयणु?
सो कहेइ – हे नरिंदु ! पच्चूसे महु मुहस्स दंसणें भोयणु न लहिज्जइ। परन्तु तुम्हहं मुह पेक्खणे मज्झु वहु भवेसइ, तइयहुं पउर किं कहेसंति/कहेसहिं। महु मुहहे सिरिमंतहं मुह दंसणु केरिसु फलउ जाइ ? नायरा वि पभाए तुम्हहं मुह कहं पासिहिरे ? एवं तासु वयण जुत्तिए संतुटु नरिंदु। सो वहाएसु निसेहेवि पारितोसिउ च दायवि हरिसिउ सो अमंगलिउ वि संतुस्सिउ।
(प्रस्तुत मूल, प्राकृत कथा का यह अपभ्रंश रूपान्तरण प्राकृत अपभ्रंश के सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रो. कमलचन्द सोगाणी, जयपुर द्वारा किया, जो कि उनके द्वारा लिखित 'अपभ्रंश अभ्यास सौरभ' नामक पुस्तक, प्रकाशक - अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर सन् २०१२ के पृ. १५६ से साभार उद्धृत है।)
हिन्दी अनुवाद
अमांगलिक पुरुष की कथा एक नगर में एक अमांगलिक मूर्ख पुरुष था। वह ऐसा था, जो कोई भी प्रभात में मुँह को देखता, वह भोजन भी नहीं पाता (उसे भोजन भी नहीं मिलता)। नगर के निवासी भी प्रातःकाल में कभी भी उसके मुँह को नहीं देखते थे। राजा के द्वारा भी अमांगलिक पुरुष की बात सुनी
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