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________________ 64 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा चैत्य के समीप गोदोहासन से बैठे हुए आतापना ले रहे थे, दो उपवास धारण किये हुए थे, सिर नीचे रख कर दोनों घुटने ऊँचे किये हुए ध्यान में लीन थे उस समय उन्हें अनन्त प्रतिपूर्ण - समग्र - निरावरण केवलज्ञान - दर्शन हुआ। ___ अब भगवान् अर्हत् - जिन हुए, केवली-सर्वज्ञ-सर्वभावदर्शी हुए। देव, मनुष्य एवं असुरलोक पर्यायों के ज्ञाता हुए। आगमन, गमन, स्थिति, च्यवन, उपपात, प्रकट, गुप्त, कथित, अकथित आदि समस्त क्रियाओं व भावों के द्रष्टा हुए, ज्ञाता हुए। जिस समय भगवान् केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हुए उस समय भवनपति आदि चारों प्रकार के देवों व देवियों ने आकर भारी उत्सव किया। .. भगवान् ने अपनी आत्मा तथा लोक को सम्पूर्णतया देखकर पहले देवों को और बाद में मनुष्यों को धर्मोपदेश दिया। बाद में गोतम आदि श्रमण-निर्ग्रथों को भावनायुक्त पाँच महाव्रतों तथा छ: जीवनिकायों का स्वरूप समझाया। भावना नामक प्रस्तुत चूलिका में इन पाँच महाव्रतों का स्वरूप विस्तारपूर्वक समझाया गया है। साथ ही प्रत्येक व्रत की पाँच – पाँच भावनाओं का स्वरूप भी बताया गया है। ममत्वमुक्ति :- अन्त में विमुक्ति नामक चतुर्थ चूलिका में ममत्वमूलक आरम्भ और परिग्रह के फल की मीमांसा करते हुए भिक्षु को उनसे दूर रहने को कहा गया है। उसे पर्वत की भाँति निश्चल व दृढ़ रह कर सर्प की केंचूली की भाँति ममत्व को उतार कर फेंक देना चाहिए। वीतरागता एवं सर्वज्ञता :- पातंजल योगसूत्र में यह बताया गया है कि अमुक भूमिका पर पहुँचे हुए साधक को केवलज्ञान होता है और वह उस ज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों एवं समस्त घटनाओं को जान लेता है। इस परिभाषा के अनुसार भगवान् महावीर को भी केवली, सर्वज्ञ अथवा सर्वदर्शी कहा जा सकता है। किन्तु साधक -जीवन में प्रधानता एवं महत्ता केवलज्ञान - केवलदर्शन की नहीं है अपितु वीतरागता, वीतमोहता, निराम्रवता, निष्कषायता की है। वीतरागता की दृष्टि से ही आचार्य हरिभ्रद ने कपिल और सुगत को भी सर्वज्ञ के रूप में स्वीकार किया है। भगवान् महावीर को ही सर्वज्ञ मानना व किसी अन्य को सर्वज्ञ न मानना ठीक नहीं। जिसमें वीतरागता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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