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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 63
उत्तरभाग को नागों ने उठाया। उत्तरक्षत्रियकुण्डपुर के बीचोबीच होते हुए भगवान् ज्ञातखण्ड नामक उद्यान में आये। पालकी से उतर सारे आभूषण निकाल दिये। बाद में भगवान के पास घूटनों के बल बैठे हुए वैश्रमणी देवों ने हंसलक्षण कपड़े में वे आभूषण ले लिये। तदन्तर भगवान् ने अपने दाहिने हाथ से सिर को दाहिनी ओर के व बाये हाथ से दायी ओर के बालों को लोंच किया। इन्द्र ने भगवान् के पास घुटनों के बल बैठकर वज्रमय थाल में वे बाल ले लिये व भगवान् की अनुमति से उन्हें क्षीरसमुद्र में डाल दिये। बाद में भगवान् ने सिद्धों को नमस्कार कर "सव्वं मे अकरणिज्जं पाव कम्म" अर्थात् “मेरे लिए सब प्रकार का पापकर्म अकरणीय है", इस प्रकार का सामायिकचारित्र स्वीकार किया। जिस समय भगवान् ने यह चारित्र स्वीकार किया उस समय देवपरिषद् एवं मनुष्यपरिषद् चित्रवत् स्थिर एवं शान्त हो गई। इन्द्र की आज्ञा से बजने वाले दिव्य बाजे शान्त हो गये। भगवान् द्वारा उच्चारित चारित्रग्रहण के शब्द सबने शान्त भाव से सुने। क्षायोपशमिक चारित्र स्वीकार करने वाले भगवान् को मनःपर्यायज्ञान उत्पन्न हुआ। इस ज्ञानद्वारा वे ढाई द्वीप में रहे हुए व्यक्त मनवाले समस्त पंचेन्द्रिय प्राणियों के मनोगत भावों को जानने लगे। बाद में दीक्षित हुए भगवान् को उनके मित्रजनों, ज्ञातिजनों, स्वजनों एवं सम्बन्धीजनों ने विदाई दी। विदाई लेने के बाद भगवान् ने यह प्रतिज्ञा की कि आज से बारह वर्ष पर्यन्त शरीर की चिन्ता न करते हुए देव, मानव, पशु एवं पक्षीकृत समस्त उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करूँगा।, क्षमापूर्वक सहन करूंगा। ऐसी प्रतिज्ञा कर वे मुहूर्त दिवस शेष रहने पर उत्तरक्षत्रियकुण्डपुर से रवाना होकर कम्मारग्राम पहुँचे। तत्पश्चात् शरीर की किसी प्रकार की परवाह न करते हुए महावीर उत्तम संयम, तप, ब्रह्मचर्य, क्षमा, त्याग एवं सन्तोषपूर्वक पाँच समिति व तीन गुप्ति का पालन करते हुए, अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे एवं आने वाले उपसर्गों को शान्तिपूर्वक प्रसन्न चित्त से सहन करने लगे। इस प्रकार भगवान् ने बाहर वर्ष व्यतीत किये। - तेरहवाँ वर्ष लगने पर वैशाख शुक्ला दशमी के दिन छाया के पूर्व दिशा की ओर मुड़ने पर अर्थात् अपरान्ह में जिस समय महावीर जंभिग्राम के बाहर उज्जुवालिया नामक नदी के उत्तरी किनारे पर श्यामाक नामक गृहपति के खेत में व्यावृत्त नामक
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