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56 : अंग साहित्य मनन और मीमांसा
है कि भिक्षु को इस प्रकार की भिक्षा प्राप्त नहीं करनी चाहिए।
सम्मिलित सामग्री :- भिक्षा के लिए जाते हुए बीच में खाई, गढ़ आदि आने पर उन्हें लाँघ कर आगे न जाय। इसी प्रकार मार्ग में उन्मत्त सांड, भैंसा, मनुष्य आदि होने पर उस ओर न जाय । भिक्षा के लिए गये हुए जैन भिक्षु आदि को भिक्षा देने वाला गृहपति यदि यों कहे कि हे आयुष्मान् श्रमणों ! मैं अभी विशेष काम में व्यस्त हूँ। मैंने यह सारी भोजन सामग्री आप सब को दे दी है इसे आप लोग खा लीजिए अथवा आपस में बाँट लीजिए। ऐसी स्थिति में वह भोजन सामग्री जैन भिक्षु स्वीकार न करे। कदाचित कारणवशात् ऐसी सामग्री स्वीकार करनी पड़े तो ऐसा न समझे कि दाता ने यह सारी सामग्री मुझ अकेले को दे दी है अथवा मेरे लिए ही पर्याप्त है। उसे आपस में बांटते समय अथवा साथ में मिलकर खाते समय किसी प्रकार का पक्षपात अथवा चालाकी न करे । भिक्षा ग्रहण का यह नियम औत्सर्गिक नहीं अपितु आपवादिक है । वृत्तिकार के अनुसार अमुक प्रकार के भिक्षुओं के लिए ही यह नियम है, सबके लिए नहीं ।
ग्राह्य जल :- • भिक्षु के लिए ग्राह्य पानी के प्रकार ये हैं :- उत्स्वेदिम-पिसी हुई वस्तु को भिगोकर रखा हुआ पानी, संस्वेदिम-तिल आदि बिना पिसी वस्तु को धोकर रखा हुआ पानी, तण्डुलोदक - चावल का धोवन, तिलोदक - तिल का धोवन, तुषोदक - तुष का धोवन, यवोदक - यव का धोवन, आयाम - आचाम्ल - अवश्यान, आरनाल- कांजी, शुद्ध अचित्त - निर्जीव पानी, आम्रपानक- आम का पानक, द्राक्षा का पानी, बिल्व का पानी, अमचूर का पानी, अनार का पानी, खूजर का पानी, नारियल का पानी, केर का पानी, बेर का पानी, आंवले का पानी, इमली का पानी इत्यादि ।
अग्राह्य भोजन :- भिक्षु पकाई हुई वस्तु ही भोजन के लिए ले सकता है, कच्ची नहीं । *
* अग्राह्य भोजन के संदर्भ में पंडित बेचरदास जी दोशी ने विस्तार से चर्चा
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