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________________ 24 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा ब्राह्मणधर्म से अर्थात् ब्राह्मण के यथार्थ आचार से च्यूत हो गये थे। फिर भी ब्राह्मण जाति के बाह्य चिह्नों को धारण करने के कारण ब्राह्मण ही माने जाते थे । इस प्रकार उस समय गुण नहीं किन्तु जाति ही ब्राह्मणत्व का प्रतीक मानी जाने लगी। सुत्तनिपात के ब्राह्मणधम्मिकसुत्त (चूलवग्ग, सू7) में भगवान बुद्ध ने इस विषय में सुन्दर चर्चा की है। उसका सार नीचे दिया है : श्रावस्ती नगरी जेतवनस्थित अनाथपिण्डिक के उद्यान में आकर ठहरे हुए भगवान बुद्ध से कोशल देश के बुद्ध व कुलीन ब्राह्मणों ने आकर प्रश्न किया - " हे गौतम ! क्या आजकल के ब्राह्मण प्राचीन ब्राह्मणों के ब्राह्मणधर्म के अनुसार आचरण करते हुए दिखाई देते हैं?" बुद्ध ने उत्तर दिया - "हे ब्राह्मणों ! आजकल के ब्राह्मण पुराने ब्राह्मणों के ब्राह्मणधर्म के अनुसार आचरण करते हुए दिखाई नहीं देते हैं।" ब्राह्मण कहने लगे – “हे गौतम! प्राचीन ब्राह्मणधर्म क्या है, यह हमें बताइए ।" बुद्ध ने कहा - "प्राचीन ब्राह्मण ऋषि संयतात्मा एवं तपस्वी थे। वे पाँच इन्दियों के विषयों का त्याग कर आत्मचिन्तन करते । उनके पास पशु न थे, धन न था । स्वाध्याय ही उनका धन था। वे ब्राह्मनिधि का पालन करते। लोग उनके लिए श्रद्धापूर्वक भोजन बना कर द्वार पर तैयार रखते व उन्हें देना उचित समझते । वे अवध्य थे एवं उनके लिए किसी भी कुटुम्ब में आने-जाने की कोई रोक-टोक न थी । वे अड़तालीस वर्ष तक कौमार ब्रह्मचर्य का पालन करते एवं प्रज्ञा व शील का सम्पादन करते । ऋतुकाल के अतिरिक्त वे अपनी प्रिय स्त्री का सहवास भी स्वीकार नहीं करते। वे ब्रह्मचर्य, शील, आर्जव, मार्दव, तप, समाधि, अहिंसा एवं शान्ति की स्तुति करते । उस समय सुकुमार उन्नतस्कन्ध, तेजस्वी एवं यशस्वी ब्राह्मण स्वधर्मानुसार आचरण करते तथा कृत्य-अकृत्य के विषय में सदा दक्ष रहते । वे चावल, आसन, वस्त्र, घी, तेल आदि पदार्थ भिक्षा द्वारा अथवा धार्मिक रीति से एकत्र कर यज्ञ करते । यज्ञ में वे गोवध नहीं करते। जब तक वे ऐसे थे तब तक लोग सुखी थे । किन्तु राजा से दक्षिणा में प्राप्त संपत्ति एवं अलंकृत स्त्रियों जैसी अत्यन्त क्षुद्र वस्तु से उनकी बुद्धि बदली। दक्षिणा में प्राप्त गोवृन्द एवं सुन्दर स्त्रियों में ब्राह्मण लुब्ध हुए। वे इन पदार्थों के लिए राजा इक्ष्वाकु के पास गये और कहने लगे कि तेरे पास खूब धन-धान्य है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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