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232 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित एवं सर्वार्थसिद्ध - ये पांच अनुत्तरविमान आते हैं। ये विमान उत्तर या उत्तम (प्रधान) होने से और अन्य सामान्य स्वर्गों की अपेक्षा श्रेष्ठ होने से अनुत्तरविमान कहलाते हैं। जो मनुष्य अपने तप और संयम की साधना से इनमें जन्म पाते हैं, उनको अनुत्तरोपपातिक कहा जाता है।
जैन दर्शन में लोक का स्वरुप पुरुषाकार निरूपित किया गया है। उसके सबसे नीचे के भाग में सात नरक हैं। मध्य के भाग में जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड पुष्करार्धद्वीप आदि शुभनाम वाले द्वीप, लवण, कालोदधि, पुष्करोदधि आदि समुद्र और मानुषोत्तर आदि पर्वत अवस्थित हैं। इनमें मनुष्य और तिर्यंच रहते हैं। उर्ध्वलोक को देवलोक भी कहा जाता है। यहाँ देवताओं के वास स्थान विमान माने गये हैं। इनमें ज्योतिष्क
और वैमानिक निकायों के देव निवास करते हैं। भवनपति मध्यलोक के नीचे भवनों में तथा व्यन्तर मध्यलोक में निवास करते है। भवनवासी के दस, व्यन्तर के आठ, ज्योतिष्क के पाँच तथा वैमानिक निकाय के बारह भेद हैं। वैमानिकों के सौधर्म से अच्युत विमान तक बारह स्वर्ग होते हैं जो एक दूसरे के ऊपर अवस्थित हैं। इनसे ऊपर पुरुषाकार लोक के ग्रीवास्थान में नौ ग्रैवेयक विमान अवस्थित हैं। इनके ऊपर. बाईसवें से छब्बीसवें तक पाँच विजय आदि अनुत्तर विमान हैं तथा लोक के सबसे ऊपरी भाग में सिद्ध स्थान है। प्रस्तुत अंग में इन्हीं अनुत्तर.विमानों में उत्पन्न होने वाले महापुरुषों का वर्णन किया गया है।
समवायांग तथा नंदीसूत्र में इसके परिचय के क्रम में कहा गया हैं :- इस सूत्र की वाचनाएँ परिमित हैं। वेढ़ा नामक छन्द संख्येय है, श्लोक संख्येय हैं, उसकी नियुक्ति संख्येय हैं, श्रुत-स्कन्ध है, तीन वर्ग हैं, अक्षर असंख्येय हैं, नय अनन्त हैं और पर्याय भी अनन्त हैं। पदाग्र परिमाण से संख्यात सहस्र पद हैं, इसमें परिमित त्रस तथा अनन्त स्थावरों का वर्णन है। शाश्वतकृत-निबद्ध-निकाचित जिन भगवान द्वारा प्रणीत भाव कहे गये हैं। इस प्रकार चरण-करण की प्ररुपणा के द्वारा वस्तु स्वरुप का कथन प्रज्ञापन, प्ररुपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। ___ समवायांग में आगे कहा गया है- अनुत्तरोपपातिकदशा में परम मंगलकारी, जगतहितकारी तीर्थंकरों के समवसरण और बहुत प्रकार के जिन-अतिशयों का वर्णन
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