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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 183
क अनर्थदंडविरमण, ख दिशापरिमाण और ग उपभोग-परिभोग परिमाण।
(क) अनर्थदण्ड विरमण व्रत :- अपने और अपने आश्रितों के जीवन निर्वाह के लिए गृहस्थ श्रावकों को कुछ न कुछ हिंसा करनी ही पड़ती है और इसे क्षम्य भी माना जा सकता है किंतु निष्प्रयोज्य की गई हिंसा को क्षम्य नहीं माना जा सकता है। श्रावकों को ऐसे कार्यों से बचने का संकेत जैनग्रंथों में मिलता है। कहीं इसके 5 भेद मिलते हैं तो कहीं इसके 4 भेद बताए गए हैं। ये 5 भेद हैं :1. अपध्यानाचरित - : क्रूर विचारों अथवा दुश्चिंतन के कारण
हिंसा करना। 2. प्रमादाचरित : आलस्यवश शुभ प्रवृत्तियों से बचना अथवा
उनके करने में विलम्ब करना। 3. हिंस्रप्रदान : दूसरे व्यक्तियों को आखेटादि के लिए
शस्त्रादि की सहायता करना, हिंसा के लिए
प्रेरित करना। • 4. पापकर्मोपदेश : किसी प्राणी का घात करना अथवा उन्हें
पीड़ा पहुँचाने के लिए उत्तेजित करना। 5. दुःश्रुति : कुमार्ग प्रतिपादक शास्त्रों को सुनना, संग्रह
करना एवं शिक्षण कार्य करना। श्रावक को इन कार्यों से तो बचना ही पड़ता है साथ ही साथ उन्हें अनर्थदंड अरमन व्रत के पाँच अतिचारों से भी सावधान रहना पड़ता है। ये 5 अतिचार हैं:न्दर्प, कोटकुच्य, मौखर्य, संयुक्ताधिकरण और उपभोग परिभोगातिरेक। .
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