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________________ 180 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा और तीन योग से त्याग करना ही अस्तेयाणुव्रत है। स्थूल अदत्तादान के दो रुप हैं: (क) सचित्त अदत्तादान (ख) अचित्त अदत्तादान। चेतन युक्त पदार्थ जैसे :- पालतू पशु, दास-दासी सचित्त हैं जबकि धन-धान्य, स्वर्ण-रजत, भूमि-मुद्रा आदि अचित्त पदार्थ हैं। इन दोनों को उनकी स्वामी की आज्ञा के बिना ग्रहण नहीं करना अस्तेयाणुव्रत है। योगसूत्र में कहा भी गया है- किसी की गिरी हुई वस्तु को, भूली हुई वस्तु को स्वामी के पास रखी हुई वस्तु को बिना अनुमति के किसी भी संकट के उत्पन्न होने पर न लेना ही अस्तेयाणुव्रत है। अस्तेय अणुव्रत के 5 अतिचार हैं- स्तेनाहत, तस्कर प्रयोग, विरूद्ध राज्यातिक्रम, कूटतूलाकूटमान एवं तत्प्रतिरुपक व्यवहार। 1. स्तेनादृत : चोरी का सामान लेना। 2. तस्कर प्रयोग : चोरों को वेतनादि देकर उनसे चोरी, डकैती, ठगी आदि करवाना। 3. विरूद्धराज्यातिक्रम : राजकीय नियमों के विरूद्ध व्यापार करना। 4. कूटतुलाकूटमान : बांट, तराजू, मीटर आदि से कम सामान तौलना या नापना। 5. तत्प्रतिरुपक व्यवहार : अधिक मूल्य वाली वस्तु में उसी के अनुरुप कम मूल्य वाली वस्तु की मिलावट करना। (घ) ब्रह्मचर्याणुव्रत :- नर और मादा के परस्पर शारीरिक संबंध को अब्रह्म अथवा मैथुन कर्म कहते हैं। यह कामवासना है। सर्वार्थसिद्धि में इस संबंध में यह मत व्यक्त किया गया है- चारित्रमोह के उदय होने पर राग आक्रान्त स्त्री-पुरूष के जो परस्पर के स्पर्श की इच्छा होती है वह मिथुन एवं उनकी क्रिया मैथुन है। कामवासना मनुष्य की मूलप्रवृत्ति मानी गई है और इसकी पूर्ति हेतु नर-मादा में शारीरिक संसर्ग होता है। अणुव्रतधारी श्रावक भी इससे मुक्त नहीं हो पाता इसीलिए इसकी मर्यादा निर्धारण हेतु यह विधान किया गया है8- स्वपत्मी संतोष व्रत ग्रहण करके अन्य सब प्रकार के मैथुन का त्याग करना ही ब्रह्मचर्याणुव्रत है। इसके 5 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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