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178 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
"किसी को मैं मारूं' इस भावना से हिंसा करना संकल्पी हिंसा है जबकि विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जो अनिवार्य हिंसा करनी पडती है वह आरम्भी हिंसा है। गृहस्थ संकल्पी हिंसा का त्याग करता है लेकिन आरम्भी का नहीं। अहिंसाणुव्रत के 5 अतिचार माने गए हैं जिनसे श्रावक बचता है। ये पाँच अतिचार हैं :- बंध, वध, छविच्छेद, अतिभार एवं अन्नपान निरोधा . 1. बंध : किसी त्रस प्राणि को उत्पीडक बंधन में डालना
बंध है। 2. वध : निर्दयतापूर्वक कोडे, बेंत आदि से शरीर पर प्रहार
करना वध है। 3. छविच्छेद : शरीर के अंग विशेष को छेदना-काटना आदि
छविच्छेद है। उचित पारिश्रमिक से कम देना भी
छविच्छेद कहलाता है। 4. अतिभार : अधिक बोझ लादना, अधिक काम लेना,
शक्ति-सामर्थ्य से अधिक कार्य कराना अतिभार है। 5. अन्नपान निरोध : पालतू पशुओं को भूखा रखना, नौकर आदि को
समय पर वेतन नहीं देना अन्नपान निरोध है। (ख) सत्याणुव्रत :- सत्य का सामान्य अर्थ है असत्य भाषण नहीं करना। जो वस्तु जैसी देखी अथवा सुनी गई हो, उसके विषय में वैसा न कहना, असत्य अथवा झूठ है। प्रायः किसी प्रमादवश ही व्यक्ति असत्य भाषण करता है। आचार्य अमृतचन्द्र का कथन इस बात की पुष्टि करता है। उनका मत है कि जो प्रमाद के योग से असत्य कथन किया जाता है, वह असत्य कहलाता है।' प्रमादवश जो असत्यभाषण किया जाता है उससे व्यक्ति को पीड़ा पहुँचती है। वह इससे अपने आपको आहत समझता है। पं. सुखलाल संघवी तत्त्वार्थसूत्र की अपनी व्याख्या में असत्य के स्वरुप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - गर्हित अर्थात् जो सत्य होने पर भी दूसरे को पीड़ा पहुँचाता हो ऐसा दुर्भावयुक्त कथन असत्य ही है। सत्य लेकिन
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