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________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 177 रुप से ग्रहण करने के कारण ही जाना जाता है। चूंकि महाव्रत किसी भी व्रत की पूर्णता की सीमा है जबकि अणुव्रत अपूर्ण है और श्रावक अणुव्रत का आश्रय लेकर इस अपूर्ण से पूर्ण को प्राप्त करना चाहता है। इस दिशा में वह सम्यक् प्रयास भी करता है इस रुप में हम अणुव्रत को महाव्रत का लघु संस्करण कह सकते हैं लेकिन जहाँ तक आत्मबोध व आध्यात्मिक शक्ति का प्रश्न है तो इसकी अपेक्षा अणुव्रतों भी बनी रहती है। अणुव्रतों की संख्या 5 मानी गई है क. अहिंसाणुव्रत (प्राणवध का त्याग ) ख. सत्याणुव्रत (मृषावाद का त्याग ) ग. अस्तेयाणुव्रत (अदत्तादान का त्याग ) घ. ब्रह्मचर्याणुव्रत (परदारगमन का त्याग ) और ङ अपरिग्रहाणुव्रत (परिग्रह परिमाण) (क) अहिंसाणुव्रत - हिंसा का त्याग ही अहिंसा है। प्रायः अपनी आकांक्षा एवं आसक्ति के वशीभूत होकर जीव मानसिक, वाचिक और कायिक हिंसा करता रहता है। हिंसा के स्वरुप को स्पष्ट करते हुए आचारांग में कहा गया है- प्रमाद व कामभोगों में जो आसक्ति होती है, वहीं हिंसा है। स्पष्ट है कि प्रमाद के वशीभूत होकर जीव हिंसा करता है। कभी-कभी वह इतने अधिक तीव्र प्रमाद से ग्रस्त हो जाता है कि अन्य दूसरे जीवों का प्राणघात करने से भी नहीं हिचकता है इसीलिए आचार्य उमास्वाति तत्वार्थसूत्र में लिखते हैं- प्रमत्तयोग से प्राणों का व्यपरोपण करना ही हिंसा है। अतः कषाय या रागादिभावों से युक्त होकर किसी का घात करना ही हिंसा है। शारीरिक घात के साथ-साथ मानसिक एवं भावनात्मक प्राणघात भी हिंसा का ही प्रतिरुप माना जाता है। अहिंसाणुव्रत में इस प्रकार की हिंसा का निषेघ किया जाता है । उवासगदसाओ में कहा गया है- यावज्जीवन मन, वचन एवं काय से स्थूल प्राणातिपात न स्वयं करना और न करवाना अहिंसाणुव्रत है। हिंसा के दो रूप हैं : (क) संकल्पजा और Jain Education International (ख) आरम्भजा। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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