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________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 169 क्यों हुआ यह एंक शोध का विषय हो सकता है। क्योंकि आगम वर्गीकरण का विवरण जो नंदीसूत्र में उपलब्ध है उसमें उपांग, मूल और छेद शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। 3 मूल और छेदसूत्रों का विभाजन किस समय हुआ प्रायः इसका भी निश्चय नहीं हुआ है। इसी अनुक्रम में आगम वर्गीकरण के अंतर्गत प्रकीर्णक साहित्य को भी समाविष्ट किया जाने लगा। इस प्रकार जैनागमों की संख्या बढ़ती गई। जैनागमों की संख्या के संबंध में अनेक मत मिलते हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज मूल आगमों के साथ कुछ नियुक्तियों को मिलाकर 45 आगम मानता है और कोई 84 मानते हैं। स्थानकवासी और तेरापंथी परंपरा 32 को ही प्रमाणभूत मानती है। दिगम्बर समाज की मान्यता है कि सभी आगम विच्छिन्न हो गए हैं, परंतु वे शौरसेनी में रचित कुछ ग्रंथों को आगमतुल्य मानते हैं। यहाँ हम श्वेताम्बर मान्य प्रमुख आगमों के नाम उद्धृत कर रहे हैं 14 : : 12 अंग : 12 उपांग : 6 मूलसूत्र : 6 छेदसूत्र : Jain Education International आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवाद ( विछिन्न) । औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरयावलिया, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा । आवश्यकसूत्र, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नंदी, अनुयोगद्वार, पिण्ड निर्युक्ति अथवा ओघनिर्युक्ति। निशीथ, महानिशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध और पंचकल्प। 10 प्रकीर्णक : आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, देवेन्द्रस्तव, गणि-विद्या, महाप्रत्याख्यान, चतुःशरण, वीरस्तव और संस्तारक । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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