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158 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
3. व्याख्यात्मक मूल्यों की स्थापना। 4. शतक का पृथक-पृथक उद्देशकों में विभाजन। 5. गणना प्रक्रिया मे गणितीय रेखाएँ। 6. वस्तु विवेचन में स्याद्वाद की अभिव्यक्ति। 7.. कथानक के मूल में प्रामाणिक दृष्टि। 8. सिद्धान्त विवेचन में तथ्यात्मक प्रदर्शन।
9. विषय प्रतिपादन में सूक्ष्म से सूक्ष्म गहराई। ___ व्याख्याप्रज्ञप्ति की भाषा :- यह आर्ष-वचन का सूत्र है, इसकी प्राकृत आर्ष है। शौरसेनी, अर्धमागधी व पाली ये तीन भाषाएँ आर्ष मानी गई हैं, इन तीनों में से इसके मूल में अर्धमागधी प्राकृत का वैशिष्टय है, जो अंग आगम ग्रंथ का मूल भाषा स्रोत है। अंग-उपांग, मूलसूत्र, छेदसूत्र आदि जितने भी आगम हैं, वे सभी अर्धमागधी भाषा में हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति की सूत्र शैली में भी अर्द्धमागधी भाषा ही है। कहीं-कहीं पर शौरसेनी एवं महाराष्ट्री के प्रयोग भी मिलते हैं। इसके गद्यों में छंदात्मकता भी है तथा सूत्रों में गति विराम भी है। इसकी गद्यात्मक भाषा यद्यपि कथास्वरूप को नहीं लिए हुए है फिर भी इसमें जब प्रश्न किया जाता हैं तब एक ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि क्या-क्या प्रतिपादन संभव है? इस तरह व्याख्या के व्याख्यान में जिस भाषा वैभव को देखा गया, उससे यह भी प्रतीत होता है कि इसमें देशी शब्द भी हैं, अतः इस विशालकाय ज्ञान-विज्ञान के ग्रंथ की भाषा एवं विषय के मूल्यांकन एवं शोध की आवश्यकता है।
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